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− | सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो | + | सब [[इन्द्रियों]] के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ऊँ' इस एक अक्षर रूप ब्रह्म का चिन्तन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है , वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता है ।।12-13।। |
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सर्वद्वाराणि = सब इन्द्रियों के द्वारों को ; संयम्य = रोककर अर्थात् इन्द्रियों को विषयों से हटाकर (तथा); मन: = मन को ; हृदि = हृद्देश में ; निरूध्य = स्थिर करके ; च = और ; आत्मन: = अपने ; प्राणम् = प्राण को ; मूर्न्धि = मस्तक में ; आधाय = स्थापन करके ; योगधारणाम् = योगधारणा में ; आस्थित: = स्थित हुआ ; | सर्वद्वाराणि = सब इन्द्रियों के द्वारों को ; संयम्य = रोककर अर्थात् इन्द्रियों को विषयों से हटाकर (तथा); मन: = मन को ; हृदि = हृद्देश में ; निरूध्य = स्थिर करके ; च = और ; आत्मन: = अपने ; प्राणम् = प्राण को ; मूर्न्धि = मस्तक में ; आधाय = स्थापन करके ; योगधारणाम् = योगधारणा में ; आस्थित: = स्थित हुआ ; | ||
− | य: = जो | + | य: = जो पुरुष ; इति = ऐसे (इस) ; एकाक्षरम् = एक अक्षर रूप ; ब्रह्म = ब्रह्म को ; व्याहरन् = उच्चारण करता हुआ (और उसके अर्थस्वरूप) ; माम् = मेरे को ; अनुस्मरन् = चिन्तन करता हुआ ; देहम् = शरीर को ; त्यजन् = त्याग कर ; प्रयाति = जाता है ; स: = वह पुरुष ; परमाम् = परम ; गतिम् = गति को ; याति = प्राप्त होता है |
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१२:४९, २१ मार्च २०१० के समय का अवतरण
गीता अध्याय-8 श्लोक-12, 13 / Gita Chapter-8 Verse-12, 13
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