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१२:५१, २१ मार्च २०१० के समय का अवतरण

गीता अध्याय-9 श्लोक-23 / Gita Chapter-9 Verse-23

प्रसंग-


पूर्वश्लोकों में भगवान् ने समस्त विश्व को अपना स्वरूप बताया कि यज्ञों द्वारा की जाने वाली देव पूजा को प्रकारान्तर से अपनी ही पूजा बताकर उसका फल आवागमन के चक्र में पड़ना और अपने अनन्य भक्त की उपासना का फल उसे अपनी प्राप्ति करा देना कैसे बताया ? इस पर कहते हैं –


येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।।23।।



हे <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> ! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है ।।23।।

Arjuna, even those devotees who, endowed with faith, worship other gods (with some interested motive) worship me alone, though with a mistaken a approach. (23)


कौन्तेय = हे अर्जुन ; अपि = यद्यपि ; श्रद्धया = श्रद्धा से ; अन्विता: = युक्त हुए ; ये = जो ; भक्ता: = सकामी भक्त ; अन्यदेवता: = दूसरे देवताओं को ; यजन्ते = पूजते हैं ; ते = वे ; अपि = भी ; माम् = मेरे को ; एव = ही ; यजन्ति = पूजते हैं (किन्तु उनका वह पूजना ) ; अविधिपूर्वकम् = अविधिपूर्वक है अर्थात् अज्ञानपूर्वक है ;



अध्याय नौ श्लोक संख्या
Verses- Chapter-9

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

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