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'''मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ।।34।।'''
 
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मनवाला; भव = हो(और); मभ्दक्त: = मुझ परमेश्वर को ही श्रद्धा प्रेमसहित निष्कामभाव से नाम गुण और प्रभावके श्रवण, कीर्तन , मनन और पठनपाठनद्वारा निरन्तर भजनेवाला हो(तथा); मद्याजी(भव) = मेरा(शख्ड चक्र गदा पह्रा और किरीट कुण्डल आदि भूषणों से युक्त पीताम्बर वनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णुका) मन वाणी औ शरीर के द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा भक्त और प्रेम से विहृलतापूर्वक पूजन करनेवाला हो(और); माम् = मुझ सर्वशक्तिमान् विभूति बल ऐश्वर्य माधुर्य गम्भीरता उदरता वात्सल्य और सुहृदता आदि गुणों से सम्पत्र सबके आश्रयरूप वासुदेव को; नमस्कुरू = विनयभावपूर्वक भक्तिसहित साष्टारग्ड दण्डवत् प्रणाम् कर; एवम् = इस प्रकार; मत्परायण: = मेरे शरण हुआ(तूं); आत्मानम् = आत्मा को; युक्त्वा = मेरे में एकीभाव करके; माम् = मेरे को; एष्यसि = प्राप्त होवेगा ;
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मनवाला; भव = हो(और); मभ्दक्त: = मुझ परमेश्वर को ही श्रद्धा प्रेमसहित निष्कामभाव से नाम गुण और प्रभावके श्रवण, कीर्तन , मनन और पठनपाठनद्वारा निरन्तर भजनेवाला हो(तथा); मद्याजी(भव) = मेरा(शख्ड चक्र गदा पह्रा और किरीट कुण्डल आदि भूषणों से युक्त पीताम्बर वनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णुका) मन वाणी औ शरीर के द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा भक्त और प्रेम से विहृलतापूर्वक पूजन करनेवाला हो(और); माम् = मुझ सर्वशक्तिमान् विभूति बल ऐश्वर्य माधुर्य गम्भीरता उदरता वात्सल्य और सुहृदता आदि गुणों से सम्पत्र सबके आश्रयरूप वासुदेव को; नमस्कुरु = विनयभावपूर्वक भक्तिसहित साष्टारग्ड दण्डवत् प्रणाम् कर; एवम् = इस प्रकार; मत्परायण: = मेरे शरण हुआ(तूं); आत्मानम् = आत्मा को; युक्त्वा = मेरे में एकीभाव करके; माम् = मेरे को; एष्यसि = प्राप्त होवेगा ;
 
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१२:५३, २१ मार्च २०१० के समय का अवतरण

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गीता अध्याय-9 श्लोक-34 / Gita Chapter-9 Verse-34

प्रसंग-


पिछले श्लोकों में भगवान् ने अपने भजन का महत्व दिखलाया और अन्त में <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को भजन करने के लिये कहा । अतएव अब भगवान् अपने भजन का अर्थात् शरणागति का प्रकार बतलाते हुए अध्याय की समाप्ति करते हैं-


मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ।।34।।



मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर । इस प्रकार आत्मा को मुझ में नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा ।।34।।

Fix your mind on me, be devoted to me, worship me and make obeisance to me; thus linking your self with me and entirely depending on me, you shall come to me. (34)


मनवाला; भव = हो(और); मभ्दक्त: = मुझ परमेश्वर को ही श्रद्धा प्रेमसहित निष्कामभाव से नाम गुण और प्रभावके श्रवण, कीर्तन , मनन और पठनपाठनद्वारा निरन्तर भजनेवाला हो(तथा); मद्याजी(भव) = मेरा(शख्ड चक्र गदा पह्रा और किरीट कुण्डल आदि भूषणों से युक्त पीताम्बर वनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णुका) मन वाणी औ शरीर के द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा भक्त और प्रेम से विहृलतापूर्वक पूजन करनेवाला हो(और); माम् = मुझ सर्वशक्तिमान् विभूति बल ऐश्वर्य माधुर्य गम्भीरता उदरता वात्सल्य और सुहृदता आदि गुणों से सम्पत्र सबके आश्रयरूप वासुदेव को; नमस्कुरु = विनयभावपूर्वक भक्तिसहित साष्टारग्ड दण्डवत् प्रणाम् कर; एवम् = इस प्रकार; मत्परायण: = मेरे शरण हुआ(तूं); आत्मानम् = आत्मा को; युक्त्वा = मेरे में एकीभाव करके; माम् = मेरे को; एष्यसि = प्राप्त होवेगा ;



अध्याय नौ श्लोक संख्या
Verses- Chapter-9

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

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