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==जैन दर्शन / Jain philosophy==  
==जैन दर्शन / ==  
 
 
*'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है।  
 
*'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है।  
 
*अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं।  
 
*अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं।  
 
*आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।
 
*आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।
* जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।<balloon title="सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61" style=color:blue>*</balloon> उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहां तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।<balloon title="क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल:
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* जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।<balloon title="सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61" style=color:blue>*</balloon> उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।<balloon title="क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल:
 
काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।
 
काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।
 
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,
 
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,
 
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥" style=color:blue>*</balloon>
 
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥" style=color:blue>*</balloon>
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==जैन दर्शन के प्रमुख अंग==
 
==जैन दर्शन के प्रमुख अंग==
 
#द्रव्य-मीमांसा
 
#द्रव्य-मीमांसा
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इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै:
 
इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै:
 
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।" style=color:blue>*</balloon>  
 
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।" style=color:blue>*</balloon>  
*जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना जरूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं।  
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*जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं।  
 
*तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है।  
 
*तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है।  
 
*भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है।  
 
*भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है।  
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#जीव,  
 
#जीव,  
 
#कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।
 
#कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।
==द्रव्य का स्वरूप==
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आचार्य कुन्दकुन्द<balloon title="पंचास्तिकाय, गा. 10" style=color:blue>*</balloon> और गृद्धपिच्छ<balloon title=" तत्व सूत्र 5-29, 30" style=color:blue>*</balloon> ने द्रव्य का स्वरूप दो तरह से बतलाया है। एक है, जो सत है वह द्रव्य है और सत वह है जिसमें उत्पाद (उत्पत्ति), व्यय (विनाश) और ध्रौव्य (स्थिति) ये तीनों पाये जाते हैं। विश्व की सारी वस्तुएँ इन तीन रूप हैं। उदाहरणार्थ एक स्वर्ण घट को लीजिए। जब उसे मिटाकर स्वर्णकार मुकुट बनाता है तो हमें घट का विनाश, मुकुट का उत्पाद और स्वर्ण के रूप में उसकी स्थिति तीनों दिखायी देते हैं। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य (प्रमाण) यह है<balloon title=" घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।  
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'''द्रव्य का स्वरूप'''
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आचार्य कुन्दकुन्द<balloon title="पंचास्तिकाय, गा. 10" style=color:blue>*</balloon> और [[गृद्धपिच्छ]]<balloon title=" तत्व सूत्र 5-29, 30" style=color:blue>*</balloon> ने द्रव्य का स्वरूप दो तरह से बतलाया है। एक है, जो सत है वह द्रव्य है और सत वह है जिसमें उत्पाद (उत्पत्ति), व्यय (विनाश) और ध्रौव्य (स्थिति) ये तीनों पाये जाते हैं। विश्व की सारी वस्तुएँ इन तीन रूप हैं। उदाहरणार्थ एक स्वर्ण घट को लीजिए। जब उसे मिटाकर स्वर्णकार मुकुट बनाता है तो हमें घट का विनाश, मुकुट का उत्पाद और स्वर्ण के रूप में उसकी स्थिति तीनों दिखायी देते हैं। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य (प्रमाण) यह है<balloon title=" घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।  
 
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्॥– समन्तभद्र, आप्तमी. का 59" style=color:blue>*</balloon> कि घट चाहने वाले को उसके मिटने पर शोक, मुकुट चाहने वाले को मुकुट बनने पर हर्ष और स्वर्ण चाहने वाले को उसके मिटने पर न शोक होता है और मुकुट बनने पर न हर्ष होता है किन्तु वह मध्यस्थ (शोक-हर्ष विहीन) रहता है, क्योंकि वह जानता है कि स्वर्ण दोनों अवस्थाओं में विद्यमान रहता है।
 
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्॥– समन्तभद्र, आप्तमी. का 59" style=color:blue>*</balloon> कि घट चाहने वाले को उसके मिटने पर शोक, मुकुट चाहने वाले को मुकुट बनने पर हर्ष और स्वर्ण चाहने वाले को उसके मिटने पर न शोक होता है और मुकुट बनने पर न हर्ष होता है किन्तु वह मध्यस्थ (शोक-हर्ष विहीन) रहता है, क्योंकि वह जानता है कि स्वर्ण दोनों अवस्थाओं में विद्यमान रहता है।
==द्रव्य के भेद==
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'''द्रव्य के भेद'''
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मूलत: द्रव्य के दो भेद हैं<balloon title="द्रव्यसं. गा. 1, त.सू. 5-1, 2, 3" style=color:blue>*</balloon>-  
 
मूलत: द्रव्य के दो भेद हैं<balloon title="द्रव्यसं. गा. 1, त.सू. 5-1, 2, 3" style=color:blue>*</balloon>-  
 
#जीव और  
 
#जीव और  
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#ज्ञान चेतना और  
 
#ज्ञान चेतना और  
 
#दर्शन चेतना। ज्ञान चेतना को ज्ञानोपयोग और दर्शनचेतना को दर्शनोपयोग भी कहते हैं। व्यवसायात्मक रूप से जो वस्तु का विशेष ग्रहण होता है वह ज्ञानचेतना अथवा ज्ञानोपयोग है और अव्यवसाय (विकल्परहित) रूप से जो पदार्थ का सामान्य ग्रहण होता है वह दर्शनचेतना अथवा दर्शनोपयोग है। पूज्यपाद-देवनंदि ने कहा है<balloon title="सर्वार्थसिद्धि 2-9" style=color:blue>*</balloon> 'साकारं ज्ञानं निराकारं दर्शनम्' आकार विकल्प सहित ग्रहण का नाम ज्ञान है और आकार रहित ग्रहण का नाम दर्शन है।  
 
#दर्शन चेतना। ज्ञान चेतना को ज्ञानोपयोग और दर्शनचेतना को दर्शनोपयोग भी कहते हैं। व्यवसायात्मक रूप से जो वस्तु का विशेष ग्रहण होता है वह ज्ञानचेतना अथवा ज्ञानोपयोग है और अव्यवसाय (विकल्परहित) रूप से जो पदार्थ का सामान्य ग्रहण होता है वह दर्शनचेतना अथवा दर्शनोपयोग है। पूज्यपाद-देवनंदि ने कहा है<balloon title="सर्वार्थसिद्धि 2-9" style=color:blue>*</balloon> 'साकारं ज्ञानं निराकारं दर्शनम्' आकार विकल्प सहित ग्रहण का नाम ज्ञान है और आकार रहित ग्रहण का नाम दर्शन है।  
===जीवद्रव्य और उसके भेद===
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'''जीवद्रव्य और उसके भेद'''
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जीवद्रव्य दो वर्गों में विभक्त है<balloon title="तत्व सूत्र 2-10, पंचास्तिकाय, गा. 109" style=color:blue>*</balloon>-  
 
जीवद्रव्य दो वर्गों में विभक्त है<balloon title="तत्व सूत्र 2-10, पंचास्तिकाय, गा. 109" style=color:blue>*</balloon>-  
 
#संसारी और  
 
#संसारी और  
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#त्रस और  
 
#त्रस और  
 
#स्थावर।
 
#स्थावर।
*दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय के भेद से जीव चार प्रकार के हैं।(1) दो इन्द्रिय आदि जीवों की भी अनेक जातियाँ हैं। उदाहरण के लिए पंचेन्द्रिय जीवों को लें। इनके दो भेद हैं(2) 1. संज्ञी, 2. असंज्ञी। जिनके मन पाया जाए वे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहे जाते हैं। मनुष्य, देव, और नारकी संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव वे हैं जिनके मन न हो और जो सोच-विचार न कर सकते हों तथा न शिक्षा ग्रहण कर सकते हों। तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी, संज्ञी पंचेद्रिय सभी प्रकार के जीव होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भी तीन भेद हैं- 1.जलचर (जल में रहने वाले मगर, मत्स्य आदि।) 2. थलचर (जमीन पर चलने वाले गाय, भैंस, गदहा, शेर, हाथी आदि) और 3. नभचर (आकाश में उड़ने वाले कौआ, कोयल, कबूतर, चिड़िया आदि पक्षी)। जिनके मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय (स्पर्श बोध कराने वाली इंद्रिय) पायी जाती है, वे स्थावर जीव हैं।(3) ये पांच प्रकार के होते है।– 1. पृथ्वी-कायिक, 2. जलकायिक, 3. अग्निकायिक, 4. वायुकायिक और 5. वनस्पतिकायिक।
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*दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय के भेद से जीव चार प्रकार के हैं।<balloon title="तत्व सूत्र 2-14" style=color:blue>*</balloon> दो इन्द्रिय आदि जीवों की भी अनेक जातियाँ हैं। उदाहरण के लिए पंचेन्द्रिय जीवों को लें। इनके दो भेद हैं<balloon title="तत्व सूत्र 2-11, 24" style=color:blue>*</balloon>
मुक्तजीव वे कहे गए हैं(4) जो संसार के बंधनों और दु:खों से छूट मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जैनदर्शन में ऐसे जीवों को 'परम-आत्मा' परमात्मा कहा गया है। ये दो प्रकार के होते हैं- 1. सकल परमात्मा (आप्त), और 2. निकल परमात्मा (सिद्ध)। जिनका कुछ कल अवशेष है वे सकल परमात्मा (जीवन मुक्त ईश्वर) हैं। जिनका वह कल (अघाति कर्ममल) दूर हो जाता है वे (नि: निर्गत:- निष्क्रान्त: कलोऽघातिचतुष्टयरूपो येषाम् ते) निकल परमात्मा (सिद्ध परमेष्ठी) है।  
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#संज्ञी,  
(ई) अजीवद्रव्य और उसके भेद
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#असंज्ञी।  
चेतना-रहित द्रव्य अजीवद्रव्य है। इसे निर्जीव जड़, अचेतन आदि नामों से भी कहा जाता है। जैसे- काष्ठ, लोष्ठ आदि। इसके पांच भेद हैं(5)-
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*जिनके मन पाया जाए वे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहे जाते हैं। मनुष्य, देव, और नारकी संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव वे हैं जिनके मन न हो और जो सोच-विचार न कर सकते हों तथा न शिक्षा ग्रहण कर सकते हों। तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी, संज्ञी पंचेद्रिय सभी प्रकार के जीव होते हैं।  
(1) वही 2-14।
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*संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भी तीन भेद हैं-  
(2) तत्व सूत्र 2-11, 24।
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#जलचर- जल में रहने वाले मगर, मत्स्य आदि।  
(3) तत्त्वार्थसूत्र 2-13, 22। द्रव्यसं. गा. 11।
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#थलचर- ज़मीन पर चलने वाले गाय, भैंस, गदहा, शेर, हाथी आदि और  
(4) द्रव्यसं., गा. त.सू. 10-1, 2, 3।
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#नभचर- आकाश में उड़ने वाले कौआ, कोयल, कबूतर, चिड़िया आदि पक्षी।
(5) तत्व सूत्र 5-1, 2, 4, द्रव्यसं. गा. 15।
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*जिनके मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय, स्पर्श बोध कराने वाली इन्द्रिय पायी जाती है, वे स्थावर जीव हैं।<balloon title="तत्त्वार्थसूत्र 2-13, 22। द्रव्यसं. गा. 11" style=color:blue>*</balloon> ये पांच प्रकार के होते है।–  
1.पुद्गल, 2. धर्म, 3. अधर्म, 4. आकाश और 5. काल। इनमें पुद्गल तो सभी के नेत्र आदि पांचों इन्द्रियों द्वारा अनुभव में अहर्निश आता है। शेष चार द्रव्य अतीन्द्रिय हैं। जीव और पुद्गल की गति, स्थिति, आधार और परिणमन में अनिवार्य निमित्त (सहायक) होने से उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता सिद्ध है। तथा युक्ति और आगम से भी वे सिद्ध हैं।
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#पृथ्वी-कायिक,  
1.पुद्गल(1)- जो पूरण-गलन (बनने-मिटने) के स्वभाव को लिए हुए है, उसे पुद्गल कहा गया है। जैसे घड़ा, कपड़ा, चटाई मकान, वाहन आदि।
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#जलकायिक,  
यह सूक्ष्म और स्थूल अथवा अणु और स्कन्ध के रूप में समस्त लोक में पाया जाता है। यह इन्द्रिय ग्राह्य और इन्द्रिय-अग्राह्य दोनों प्रकार का है। इसमें रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श पाये जाते हैं, जो उस के गुण हैं। रूप पांच प्रकार का है- काला, पीला, नील, लाल और सफेद। इन्हें यथा योगय मिलाकर और रूप भी बनाये जा सकते हैं। इनका ज्ञान चक्षु:इन्द्रिय से होता है। रस भी पांच तरह का है- खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चर्परा। इनका ग्रहण रसना (जिह्वा) इन्द्रिय से होता है। गन्ध दो प्रकार का है- सुगन्ध और दुर्गन्ध। इन दोनों गन्धों का ज्ञान घ्राण (नासिका) इन्द्रिय से होता है। स्पर्श के आठ भेद हैं- कड़ा, नरम, हलका, भारी, ठंडा, गर्म, चिकना और रूखा। इन आठों स्पर्शों का ज्ञान स्पर्शन इन्द्रिय से होता है। ये रूपादि बीस गुण पुद्गल में ही पाये जाते हैं(2), अन्य द्रव्यों से नहीं। अत: पुद्गल को ही रूपी (मूर्तिक) और शेष द्रव्यों को अरूपी (अमूर्तिक) कहा गया है।  
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#अग्निकायिक,  
(1) तत्व सूत्र 5-5, द्रव्यसं. गर. 15, 16।
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#वायुकायिक और  
(2) द्रव्यसं. गा. 15, त.सू. 5-23।
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#वनस्पतिकायिक।
2.धर्म-द्रव्य- यह द्रव्य(1) गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन (सामान्य) सहायक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार मछली की गति में जल, रेल के चलने में रेल की पटरी अथवा वृद्ध के गमन में लाठी। यह द्रव्य 'तिलेषु तैलम्' की तरह लोक में सर्वत्र व्याप्त है। इसके बिना कोई भी जीव या पुद्गल गति नहीं कर सकता। इसके कुम्हार के चाक की कीली आदि और उदाहरण दिये जा सकते हैं।  
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*मुक्तजीव वे कहे गए हैं<balloon title=" द्रव्यसं., गा. त.सू. 10-1, 2, 3" style=color:blue>*</balloon> जो संसार के बंधनों और दु:खों से छूट मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जैन दर्शन में ऐसे जीवों को 'परम-आत्मा' परमात्मा कहा गया है। ये दो प्रकार के होते हैं-  
3.अधर्म द्रव्य- यह(2) धर्म द्रव्यसे विपरीत है। यह जीवों और पुद्गलों की स्थिति (ठहरने) मं  सामान्य निमित्त है। जैसे वृक्ष की छाया पथिकको ठहरने में सहायक होती है अथवा यात्री को धर्मशाला या स्टेशन। ध्यातव्य है कि यह अधर्म द्रव्य और उपर्युक्त धर्मद्रव्य दोनों अप्रेरक निमित्त हैं(3) और अतीन्द्रिय हैं तथा दोनों पुण्य एवं पापरूप धर्म-अधर्म नहीं है- उनसे ये दोनों पृथक् हैं।  
+
#सकल परमात्मा (आप्त), और  
4.आकाश-द्रव्य(4)- यह जीव आदि सभी (पांचों) द्रव्यों को अवकाश देता है। सभी द्रव्य इसी में अवस्थित हैं। अत: सबके अवस्थान में यह सामान्य निमित्त हैं यह दो भागों में विभक्त है(5) 1. लोकाकाश और 2. आलोकाकाश। जितने आकाश में, जो उसका असंख्यात वां भाग है, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रव्य पाये जाते हैं वह लोकाकाश है और उसके चारों ओर केवल एक आकाश द्रव्य है और जो चारों ओर अनन्त-अनन्त है वह अलोकाकाश हे। यह इसकी अवगाहन शक्ति की विशेषता है कि असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, असंख्यात कालाणू, एक असंख्यात प्रदेशी धर्मद्रव्य और एक असंख्यात प्रदेशी अधर्म द्रव्य ये सब परस्पर के अविरोधपूर्वक अवस्थित हैं। अलोकाकाश में आकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नहीं है।  
+
#निकल परमात्मा (सिद्ध)।
5.कालद्रव्य- यह (6) द्रव्यों की वर्तना, परिणमन, क्रिया, परत्व (ज्येष्ठत्व) और अपरत्व (कनिष्ठत्व) के व्यवहार में सहायक (उदासीन-अप्रेरक निमित्त) होता है। यह द्रव्य न हो, तो जीवों में बाल्य, युवा, वार्धक्य और पुद्गलों में नवीनता, जीर्णता जैसा परिवर्तन,  
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*जिनका कुछ कल अवशेष है वे सकल परमात्मा, जीवन मुक्त ईश्वर हैं। जिनका वह कल, अघाति कर्ममल दूर हो जाता है वे नि: निर्गत:- निष्क्रान्त: कलोऽघातिचतुष्टयरूपो येषाम् ते, निकल परमात्मा, सिद्ध परमेष्ठी है।  
(1) द्रव्य. सं. गा. 17, त.सू. 5-17, पंचास्ति. 85 ।
+
 
(2) द्रव्यसंग्रह गा. 18, त.सू. 5-17 पंचास्ति गा. 86 ।
+
'''अजीवद्रव्य और उसके भेद'''
(3) पंचास्ति, गा. 88, 89, द्रव्यसं. गा. 17, 18 ।
+
 
(4) द्रव्यं सं. गा. 19, त.सू. 5-18, पंचास्ति. गा. 90 ।
+
चेतना-रहित द्रव्य अजीव द्रव्य है। इसे निर्जीव जड़, अचेतन आदि नामों से भी कहा जाता है। जैसे- काष्ठ, लोष्ठ आदि। इसके पांच भेद हैं<balloon title="तत्व सूत्र 5-1, 2, 4, द्रव्यसं. गा. 15" style=color:blue>*</balloon>-
(5) पंचास्ति गा. 91, द्रव्यसं. गा. 20 ।
+
#पुद्गल,  
(6) पंचास्ति गा. 100, द्रव्य सं. गा. 21, 22 ।
+
#धर्म,  
ऋतु-पलटन, दिन-रात पक्ष-मास-वर्ष आदि का विभाग, आयु की अपेक्षा ज्येष्ठ-कनिष्ठ आदि का व्यवहार सम्भव नहीं है।  
+
#अधर्म,  
यह दो प्रकार का है- 1. निश्चय काल और 2. व्यवहारकाल। जो द्रव्यों की वर्त्तना (सत्ता) में निमित्त है वह निश्चय काल अथवा परमार्थ काल है तथा जो द्रव्यों के परिवर्तन आदि से जाना जाता है वह व्यवहार काल है।
+
#आकाश और  
 +
#काल। इनमें पुद्गल तो सभी के नेत्र आदि पांचों इन्द्रियों द्वारा अनुभव में अहर्निश आता है। शेष चार द्रव्य अतीन्द्रिय हैं। जीव और पुद्गल की गति, स्थिति, आधार और परिणमन में अनिवार्य निमित्त (सहायक) होने से उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता सिद्ध है। तथा युक्ति और आगम से भी वे सिद्ध हैं।
 +
*पुद्गल<balloon title="तत्व सूत्र 5-5, द्रव्यसं. गर. 15, 16" style=color:blue>*</balloon>- जो पूरण-गलन (बनने-मिटने) के स्वभाव को लिए हुए है, उसे पुद्गल कहा गया है। जैसे घड़ा, कपड़ा, चटाई मकान, वाहन आदि। यह सूक्ष्म और स्थूल अथवा अणु और स्कन्ध के रूप में समस्त लोक में पाया जाता है। यह इन्द्रिय ग्राह्य और इन्द्रिय-अग्राह्य दोनों प्रकार का है। इसमें रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श पाये जाते हैं, जो उस के गुण हैं।  
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#रूप पांच प्रकार का है- काला, पीला, नील, लाल और सफेद। इन्हें यथा योग्य मिलाकर और रूप भी बनाये जा सकते हैं। इनका ज्ञान चक्षु:इन्द्रिय से होता है।  
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#रस भी पांच तरह का है- खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चर्परा। इनका ग्रहण रसना (जिह्वा) इन्द्रिय से होता है।  
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#गन्ध दो प्रकार का है- सुगन्ध और दुर्गन्ध। इन दोनों गन्धों का ज्ञान घ्राण (नासिका) इन्द्रिय से होता है।  
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#स्पर्श के आठ भेद हैं- कड़ा, नरम, हलका, भारी, ठंडा, गर्म, चिकना और रूखा। इन आठों स्पर्शों का ज्ञान स्पर्शन इन्द्रिय से होता है। ये रूपादि बीस गुण पुद्गल में ही पाये जाते हैं<balloon title="द्रव्यसं. गा. 15, त.सू. 5-23" style=color:blue>*</balloon>, अन्य द्रव्यों से नहीं। अत: पुद्गल को ही रूपी (मूर्तिक) और शेष द्रव्यों को अरूपी (अमूर्तिक) कहा गया है।  
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*धर्म-द्रव्य- यह द्रव्य<balloon title="द्रव्य. सं. गा. 17, त.सू. 5-17, पंचास्ति. 85" style=color:blue>*</balloon> गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन (सामान्य) सहायक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार मछली की गति में जल, रेल के चलने में रेल की पटरी अथवा वृद्ध के गमन में लाठी। यह द्रव्य 'तिलेषु तैलम्' की तरह लोक में सर्वत्र व्याप्त है। इसके बिना कोई भी जीव या पुद्गल गति नहीं कर सकता। इसके कुम्हार के चाक की कीली आदि और उदाहरण दिये जा सकते हैं।  
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*अधर्म द्रव्य- यह<balloon title="द्रव्यसंग्रह गा. 18, त.सू. 5-17 पंचास्ति गा. 86" style=color:blue>*</balloon> धर्म द्रव्यसे विपरीत है। यह जीवों और पुद्गलों की स्थिति (ठहरने) मं  सामान्य निमित्त है। जैसे वृक्ष की छाया पथिकको ठहरने में सहायक होती है अथवा यात्री को धर्मशाला या स्टेशन। ध्यातव्य है कि यह अधर्म द्रव्य और उपर्युक्त धर्मद्रव्य दोनों अप्रेरक निमित्त हैं<balloon title="पंचास्ति, गा. 88, 89, द्रव्यसं. गा. 17, 18" style=color:blue>*</balloon> और अतीन्द्रिय हैं तथा दोनों पुण्य एवं पापरूप धर्म-अधर्म नहीं है- उनसे ये दोनों पृथक् हैं।  
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*आकाश-द्रव्य<balloon title="द्रव्यं सं. गा. 19, त.सू. 5-18, पंचास्ति. गा. 90" style=color:blue>*</balloon>- यह जीव आदि सभी (पांचों) द्रव्यों को अवकाश देता है। सभी द्रव्य इसी में अवस्थित हैं। अत: सबके अवस्थान में यह सामान्य निमित्त हैं यह दो भागों में विभक्त है<balloon title="पंचास्ति गा. 91, द्रव्यसं. गा. 20" style=color:blue>*</balloon>
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#लोकाकाश और  
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#आलोकाकाश।  
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जितने आकाश में, जो उसका असंख्यात वां भाग है, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रव्य पाये जाते हैं वह लोकाकाश है और उसके चारों ओर केवल एक आकाश द्रव्य है और जो चारों ओर अनन्त-अनन्त है वह अलोकाकाश हे। यह इसकी अवगाहन शक्ति की विशेषता है कि असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, असंख्यात कालाणू, एक असंख्यात प्रदेशी धर्मद्रव्य और एक असंख्यात प्रदेशी अधर्म द्रव्य ये सब परस्पर के अविरोधपूर्वक अवस्थित हैं। अलोकाकाश में आकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नहीं है।  
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*कालद्रव्य- यह<balloon title="पंचास्ति गा. 100, द्रव्य सं. गा. 21, 22" style=color:blue>*</balloon>द्रव्यों की वर्तना, परिणमन, क्रिया, परत्व (ज्येष्ठत्व) और अपरत्व (कनिष्ठत्व) के व्यवहार में सहायक (उदासीन-अप्रेरक निमित्त) होता है। यह द्रव्य न हो, तो जीवों में बाल्य, युवा, वार्धक्य और पुद्गलों में नवीनता, जीर्णता जैसा परिवर्तन, ऋतु-पलटन, दिन-रात पक्ष-मास-वर्ष आदि का विभाग, आयु की अपेक्षा ज्येष्ठ-कनिष्ठ आदि का व्यवहार सम्भव नहीं है। यह दो प्रकार का है-  
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#निश्चय काल और  
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#व्यवहारकाल।  
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जो द्रव्यों की वर्त्तना (सत्ता) में निमित्त है वह निश्चय काल अथवा परमार्थ काल है तथा जो द्रव्यों के परिवर्तन आदि से जाना जाता है वह व्यवहार काल है।
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==तत्त्व मीमांसा==
 
==तत्त्व मीमांसा==
तत्त्व का अर्थ है प्रयोजनभूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है(1)जैनदर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।(2) 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा और 3. परमात्मा। मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर  
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तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है<balloon title="श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥" style=color:blue>*</balloon>जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।<balloon title=" कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7" style=color:blue>*</balloon>
(1) श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥
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#बहिरात्मा,
(2) कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7 ।
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#अन्तरात्मा और  
अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन (आत्म विद्या की ओर लगाव) अपूर्व है।
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#परमात्मा।  
आचार्य गृद्धपिच्छ ने(1)(2) तत्त्वार्थसूत्र में, जो 'अर्हत् प्रवचन' के नाम से प्रसिद्ध है, लिखा है तत्त्वार्थ की श्रद्धा सम्यक् दर्शन है। सही रूप में तभी देखा परखा जा सकता है जब तत्त्वार्थ की श्रद्धा हो। ये तत्त्वार्थ (तत्त्व) सात हैं(3)- 1. जीव, 2. अजीव, 3. आस्त्रव, 4. बंध, 5. संवर, 6. निर्जरा और 7. मोक्ष।
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*मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।
1.जीव तत्त्व— यह सर्वोपरि प्रतिष्ठित और शाश्वत तत्त्व है। यह चेतना लक्षण वाला है, ज्ञाता-दृष्टा है और अनंतगुणों से सम्पन्न है। चेतना वह प्रकाश है जिसमें चेतन-अचेतन सभी पदार्थों को प्रकाशित करने की शक्ति है। वह दो प्रकार की है-  
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*आचार्य गृद्धपिच्छ ने<balloon title="गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र.सं. गा. 28" style=color:blue>*</balloon> तत्त्वार्थसूत्र<balloon title="गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र. सं. गा. 28" style=color:blue>*</balloon> में, जो 'अर्हत् प्रवचन' के नाम से प्रसिद्ध है, लिखा है तत्त्वार्थ की श्रद्धा सम्यक् दर्शन है। सही रूप में तभी देखा परखा जा सकता है जब तत्त्वार्थ की श्रद्धा हो। ये तत्त्वार्थ (तत्त्व) सात हैं<balloon title="द्र. सं. गा. 3, 4, 5; त. सू. 2-8, 9; पंचास्ति, गा. 40, 41, 42" style=color:blue>*</balloon>-
(1) गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र.सं. गा. 28 ।
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#जीव,
(2) गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र. सं. गा. 28 ।
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#अजीव,
(3) द्र. सं. गा. 3, 4, 5; त. सू. 2-8, 9; पंचास्ति, गा. 40, 41, 42 ।
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#आस्त्रव,
1.ज्ञानचेतना (ज्ञानोपयोग) और 2. दर्शनचेतना (दर्शनोपयोग) विशेष-ग्रहण का नाम ज्ञान-चेतना है और पदार्थ के सामान्य-ग्रहण का नाम दर्शनचेतना है। ज्ञान चेतना के आठ भेद हैं- 1. मति, 2. श्रुत, 3. अवधि-ये तीन ज्ञान सम्यक् दर्शन के साथ होने पर सम्यक् होते है। और मिथ्यादर्शन के साथ होने पर मिथ्या भी होते हैं। इस तरह 1. सम्यक् मतिज्ञान, 2. सम्यक् श्रुतवान, 3. सम्यक् अवधिज्ञान, 4. मिथ्यामतिज्ञान, 5. मिथ्याश्रुतज्ञान 6. मिथ्या अवधिज्ञान (विभंगावधि), 7. मन:पर्ययज्ञान और 8 केवलज्ञान ये आठ ज्ञानोपयोग हैं। अंतिम दोनों ज्ञान सम्यक् ही होते हैं, वे मिथ्या नहीं होते।
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#बंध,
इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। और इस मतिज्ञानपूर्वक जो उत्तरकाल में चिन्तनात्मक ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। इन्द्रिय और मन निरपेक्ष एवं आत्मसापेक्ष जो मूर्तिक (पुद्गल) का सीमायुक्त ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है। इस अवधिज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थ के अनंतवें भाग को जो ज्ञान जानता है वह मन:पर्ययज्ञान है। भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालों से संबंधित और तीनों लोकों में विद्यमान समग्र पदार्थों को युगपत् जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहा गया है। यह ज्ञान जिसे हो जाता है वह वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा कहा जाता है। इन ज्ञानों के अवान्तर भेद भी जैनदर्शन में प्रतिपादित हैं, जो ज्ञातव्य हैं।
+
#संवर,
दर्शन चेतना के चार भेद हैं(1)- 1.चक्षुर्दर्शन, 2. अचक्षुर्दर्शन, 3. अवधिदर्शन और 4. केवलदर्शन। नेत्रों से होने वाला पदार्थ का सामान्य दर्शन चक्षुर्दर्शन है और शेष इन्द्रियों एवं मन से होने वाला सामान्य दर्शन अचक्षुर्दर्शन है। अवधिज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह अवधिदर्शन है। केवल ज्ञान के साथ ही जो समस्त वस्तुओं का युगपत् दर्शन होता है वह केवलदर्शन है।
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#निर्जरा और
(1) पंचास्ति गा. 42; स. सि. 2-9; द्रव्यसं. गा. 4 ।
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#मोक्ष।
यह जीवतत्त्व आध्यात्मिक दृष्टि से तीन प्रकार का है(1)। अर्थात इनके उत्थान की तीन श्रेणियां हैं। जैसा कि हम पहले संकेत कर आये हैं। वे है- 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा, और 3. परमात्मा।
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*जीव तत्त्व— यह सर्वोपरि प्रतिष्ठित और शाश्वत तत्त्व है। यह चेतना लक्षण वाला है, ज्ञाता-दृष्टा है और अनंतगुणों से सम्पन्न है। चेतना वह प्रकाश है जिसमें चेतन-अचेतन सभी पदार्थों को प्रकाशित करने की शक्ति है। वह दो प्रकार की है-  
गीता में सम्भवत: ऐसे ही अन्तरात्मा को 'स्थितप्रज्ञ' कहा गया है। यह अन्तरात्मा भी तीन प्रकार है(2)- 1. जघन्य, 2. मध्यम और 3. उत्तम। मिथ्यात्व का त्याग कर जिसने सम्यक्त्य (स्वयरभेद श्रद्धा) को प्राप्त कर लिया है, पर त्याग के मार्ग में अभी प्रवृत्त नहीं हो सका वह जघन्य अन्तरात्मा है। इसे जैन परिभाषा में 'अविरत-सम्यग्दृष्टि' कहा जाता है।
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#ज्ञानचेतना (ज्ञानोपयोग) और
(1) कुन्दकुन्द, अष्टपा., मोक्ष प्रा. गा. 4, 5, 6, 7 ।
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#दर्शनचेतना (दर्शनोपयोग) विशेष-ग्रहण का नाम ज्ञान-चेतना है और पदार्थ के सामान्य-ग्रहण का नाम दर्शनचेतना है।
(2) दौलतराम छह-ढाला 3-4, 5, 6 ।
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*ज्ञान चेतना के आठ भेद हैं- 1. मति, 2. श्रुत, 3. अवधि-ये तीन ज्ञान सम्यक् दर्शन के साथ होने पर सम्यक् होते है। और मिथ्यादर्शन के साथ होने पर मिथ्या भी होते हैं। इस तरह 1. सम्यक् मतिज्ञान, 2. सम्यक् श्रुतवान, 3. सम्यक् अवधिज्ञान, 4. मिथ्यामतिज्ञान, 5. मिथ्याश्रुतज्ञान 6. मिथ्या अवधिज्ञान (विभंगावधि), 7. मन:पर्ययज्ञान और 8 केवलज्ञान ये आठ ज्ञानोपयोग हैं। अंतिम दोनों ज्ञान सम्यक ही होते हैं, वे मिथ्या नहीं होते।
आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि तपस्वी (साधु) वही है ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन रहता है- 'ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।' यही उत्तम अन्तरात्मा तप और ध्यान द्वारा नवीन पुरातन कर्मों को निर्जीर्ण करके जब कर्मकलङ्क से मुक्त हो जाता है तो वह परमात्मा कहा जाता है। फिर उसे संसार परिभ्रमण नहीं करना पड़ता। अनन्त काल तक वह अपने अनन्त गुणों में लीन होकर शाश्वत सुख (नि:श्रेयस) का अनुभव करता है। जैन दर्शन में मुक्त जीवों की अवस्थिति लोक के अग्रभाग (सिद्धशिला) में मानी गयी है।(1)
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*इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। और इस मतिज्ञानपूर्वक जो उत्तरकाल में चिन्तनात्मक ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। इन्द्रिय और मन निरपेक्ष एवं आत्मसापेक्ष जो मूर्तिक (पुद्गल) का सीमायुक्त ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है। इस अवधिज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थ के अनंतवें भाग को जो ज्ञान जानता है वह मन:पर्ययज्ञान है। भूत, भविष्यत और वर्तमान तीनों कालों से संबंधित और तीनों लोकों में विद्यमान समग्र पदार्थों को युगपत् जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहा गया है। यह ज्ञान जिसे हो जाता है वह वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा कहा जाता है। इन ज्ञानों के अवान्तर भेद भी जैनदर्शन में प्रतिपादित हैं, जो ज्ञातव्य हैं।
गुणस्थान- उल्लेखनीय है कि इस जीव तत्त्व के आध्यात्मिक विकास या उन्नयन की चौदह श्रेणियां जैन आगमों में निरूपित हैं।(2) जिन्हें 'गुणस्थान' (आत्मगुणों को विकसित करने के दर्जे) संज्ञा दी गयी है। वे हैं- 1. मिथ्यात्व, 2. सासादन, 3. मिश्र, 4. अविरत, 5. देशविरत, 6. सर्वविरत, 7. अप्रमत्तसंयत, 8. अपूर्वकरण, 9. अनिवृत्तिकरण, 10. सूक्ष्मसाम्पराय, 11. उपशान्त मोह, 12. क्षीण मोह, 13.सयोग केवली और 14. अयोग केवली। इन चौदह गुणस्थानों में बारहवें गुणस्थान तक जीव संसारी कहलाता है। किन्तु निश्चय ही वह तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करेगा और वहां तथा चौदहवें गुणस्थान में वह 'परमात्मा' संज्ञा को प्राप्त कर लेता है तथा कुछ ही क्षणों में गुणस्थानातीत होकर 'सिद्ध' हो जाता है।
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*दर्शन चेतना के चार भेद हैं<balloon title="पंचास्ति गा. 42; स. सि. 2-9; द्रव्यसं. गा. 4" style=color:blue>*</balloon>- 1.चक्षुर्दर्शन, 2. अचक्षुर्दर्शन, 3. अवधिदर्शन और 4. केवलदर्शन। नेत्रों से होने वाला पदार्थ का सामान्य दर्शन चक्षुर्दर्शन है और शेष इन्द्रियों एवं मन से होने वाला सामान्य दर्शन अचक्षुर्दर्शन है। अवधिज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह अवधिदर्शन है। केवल ज्ञान के साथ ही जो समस्त वस्तुओं का युगपत् दर्शन होता है वह केवलदर्शन है। यह जीवतत्त्व आध्यात्मिक दृष्टि से तीन प्रकार का है<balloon title="कुन्दकुन्द, अष्टपा., मोक्ष प्रा. गा. 4, 5, 6, 7" style=color:blue>*</balloon> अर्थात इनके उत्थान की तीन श्रेणियां हैं। वे है- 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा, और 3. परमात्मा।
(1) नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं. गा. 14 ।
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*[[गीता]] में सम्भवत: ऐसे ही अन्तरात्मा को 'स्थितप्रज्ञ' कहा गया है। यह अन्तरात्मा भी तीन प्रकार है<balloon title="दौलतराम छह-ढाला 3-4, 5, 6" style=color:blue>*</balloon>(2)- 1. जघन्य, 2. मध्यम और 3. उत्तम। मिथ्यात्व का त्याग कर जिसने सम्यक्त्य (स्वयरभेद श्रद्धा) को प्राप्त कर लिया है, पर त्याग के मार्ग में अभी प्रवृत्त नहीं हो सका वह जघन्य अन्तरात्मा है। इसे जैन परिभाषा में 'अविरत-सम्यग्दृष्टि' कहा जाता है।
(2) वही, गा. 13 ।
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*आचार्य [[समन्तभद्र]] ने लिखा है कि तपस्वी (साधु) वही है ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन रहता है- 'ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।' यही उत्तम अन्तरात्मा तप और ध्यान द्वारा नवीन पुरातन कर्मों को निर्जीर्ण करके जब कर्मकलङ्क से मुक्त हो जाता है तो वह परमात्मा कहा जाता है। फिर उसे संसार परिभ्रमण नहीं करना पड़ता। अनन्त काल तक वह अपने अनन्त गुणों में लीन होकर शाश्वत सुख (नि:श्रेयस) का अनुभव करता है। जैन दर्शन में मुक्त जीवों की अवस्थिति लोक के अग्रभाग (सिद्धशिला) में मानी गयी है।<balloon title="नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं. गा. 14" style=color:blue>*</balloon>
2.अजीव तत्त्व- यों तो जीव के सिवाय सभी द्रव्य (पुद्गल आदि पांचों) अजीव हैं। उनमें किसी में भी चेतना न होने से अचेतन हैं। उनका विवेचन द्रव्य-मीमांसा में किया जा चुका है। पर यहाँ उस अजीव से मतलब है, जो जीव को अनादि से बन्धनबद्ध किये हुए है और जिससे ही वस्तुत: जीव को छुटकारा पाना है। वह है पुद्गल, और पुद्गलों में भी सभी पुद्गल नहीं क्योंकि वे तो छूटे हुए ही हैं। किन्तु कार्माणवर्गणा के जो कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्ध है और जो जीव के कषाय एवं योग के निमित्त से उससे बंधे है। तथा प्रतिसमय बंध रहे हैं। उन कर्म रूप पुद्गल स्कन्धों की यहाँ अजीव तत्त्व से विवक्षा है, जिन्हें तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिच्छ ने 'भेत्तारं कर्मभूभृताम्' पद के द्वारा 'कर्मभूभृत्' कहा है। इन्हें ही हेय ज्ञात कर आत्मा से दूर करना है। जैन दर्शनों में इन कर्मों को ज्ञानावरण आदि आठ भागों में विभक्त किया गया है। आत्मदर्शन, स्वरूपोपलब्धि सिद्धत्व आदि आत्मगुण उन्हीं के कारण अवरुद्ध रहते हैं।
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*गुणस्थान- उल्लेखनीय है कि इस जीव तत्त्व के आध्यात्मिक विकास या उन्नयन की चौदह श्रेणियां जैन आगमों में निरूपित हैं।<balloon title="नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं.4, गा. 13" style=color:blue>*</balloon> जिन्हें 'गुणस्थान' (आत्मगुणों को विकसित करने के दर्जे) संज्ञा दी गयी है। वे हैं-  
3.आस्त्रव तत्त्व— जिनके द्वारा आत्मा में कर्मस्कन्धों का प्रवेश होता है उन्हें आस्त्रव कहा गया है। यह दो प्रकार का है(1)। 1. भावास्त्रव और 2. द्रव्यास्त्रव। आत्मा के जिन कलुषितभावों या मन, वचन और शरीर की क्रिया से कर्म आते हैं उन भावों तथा मन, वचन और शरीर की क्रिया को भावास्त्रव तथा कर्मागमन को द्रव्यास्त्रव प्रतिपादित किया गया है। भावास्त्रव के अनेक भेद हैं- 1. मिथ्यात्व 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय और 5.योग। इनमें मिथ्यात्व के 5, अविरति के 5, प्रमाद के 15, कषाय के 4 और योग के 3 कुल 32 भेद हैं। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो कार्माणवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध आते हैं उनमें कर्मरूप शक्ति होना द्रव्यास्त्रव है। इनके ज्ञानावरण आदि आठ मूलभेद हैं और उनके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं।  
+
#मिथ्यात्व,
(1) वही, गा. 29, 30 ।
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#सासादन,  
(2) वही, गा. 32, 33 ।
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#मिश्र,  
4.बन्ध तत्त्व— आत्मा के जिन अशुद्ध भावों से कर्म आत्मा से बंधें वे अशुद्ध भाव (राग, द्वेष, छल-कपट, क्रोध मान आदि) भावबंध हैं ये अशुद्ध भाव कर्म व आत्मा को परस्पर चिपकाने (बांधने) में गोंद का कार्य करते हैं। कर्म पुद्गलों तथा आत्मा के प्रदेशों का जो अन्योन्य प्रवेश है। दूध-पानी की तरह उनका घुल-मिल जाना है वह द्रव्य बन्ध है। एक दूसरी तरह से भी बंध के भेद कहे गए हैं(2)। वे हैं- 1. प्रकृति, 2. स्थिति, 3. अनुभाग और 4. प्रदेश। इनमें प्रकृति और प्रदेश योगों (शरीर, वचन और मन की क्रियाओं) से होते हैं। स्थिति एवं अनुभाव कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के निमित्त् से होते हैं।  
+
#अविरत,
5.संवरतत्त्व— आस्त्रव तत्त्व के कथन में जिन आस्त्रवों को (कर्म के आने के द्वारों को) कहा गया है उनको रोक देना संवर है।(1) कर्म के द्वार बन्द हो जाते हैं तब कर्म आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकते। जैसे- सछिद्र जलयान (नाव आदि) के छोटे-बड़े सब छिद्र बंद कर देने पर जलयान में जल का प्रवेश नहीं होता। संवर नये कर्मों का प्रवेश रोकता है। इसके कई प्रकार हैं। व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र- ये उसके भेद हैं, जो आगत कर्मों को आत्मा में आने नहीं देते।
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#देशविरत,
6.निर्जरा तत्त्व— ज्ञात-अज्ञात में आये कर्मों को तप आदि के द्वारा बाहर निकालने का जो प्रयत्न है वही निर्जरा है। यह सविपाक और अविपाक के भेद से दो प्रकार की है।(2) जो कर्म अपना फल देकर चला जाता हे वह सविपाक निर्जरा हैं। यह निर्जरा प्रत्येक जीव के प्रति समय होती रहती है, पर इससे बंधन नहीं टूटता है। तप के द्वारा जो बंधन तोड़ा जाता है वह अविपाक निर्जरा है। जीव को अपने उद्धार के लिए यही निर्जरा सार्थक होती है। अर्थात् उसी से शिवफल (मोक्ष) प्राप्त होता है।
+
#सर्वविरत,
(1) गृद्धपिच्छ, स.सू. 9-1; द्रव्यसं. गा. 34, 35 ।
+
#अप्रमत्तसंयत,  
(2) द्रव्य सं. गा. 36; त.सू. 9-3, 19, 20 ।
+
#अपूर्वकरण,
7.मोक्ष तत्त्व— यह वह तत्त्व एवं तथ्य है जिसके लिए मुमुक्ष अनेक भवों से प्रयत्न करते हैं। कर्म दो प्रकार के हैं। एक वे जो अतीतकाल से संबंध रखते हैं और अनादिकाल से बंधे चले आ रहे हैं तथा दूसरे वे हैं जो आगामी हैं। आगामी कर्मों का अभाव बंध हेतुओं (आस्त्रव) के अभाव (संवर) से होता है। अतीत संबंधी (पूर्वोपात्त) कर्मों का अभाव निर्जरा द्वारा होता है। इस प्रकार समस्त कर्मों का छूट जाना मोक्ष है।(1) यही शुद्ध अवस्था जीव की वास्तविक अपनी अवस्था है, जो सादि होकर अनंत है। इसी को प्राप्त करने के लिए आत्मा बाह्य और आभ्यंतर तपों, उत्तम क्षमादि धर्मों एवं चारों शुक्लध्यानों को करता है और नाना उपसर्गों एवं परीषहों को सहनकर उन पर विजय पाता है। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म- इन तीनों प्रकार के कर्मों से रहित हो जाने पर आत्मा 'सिद्ध' हो जाता है।  
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#अनिवृत्तिकरण,
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#सूक्ष्मसाम्पराय,
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#उपशान्त मोह,
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#क्षीण मोह,
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#सयोग केवली और  
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#अयोग केवली।
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इन चौदह गुणस्थानों में बारहवें गुणस्थान तक जीव संसारी कहलाता है। किन्तु निश्चय ही वह तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करेगा और वहां तथा चौदहवें गुणस्थान में वह 'परमात्मा' संज्ञा को प्राप्त कर लेता है तथा कुछ ही क्षणों में गुणस्थानातीत होकर 'सिद्ध' हो जाता है।
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*अजीव तत्त्व- यों तो जीव के सिवाय सभी द्रव्य (पुद्गल आदि पांचों) अजीव हैं। उनमें किसी में भी चेतना न होने से अचेतन हैं। उनका विवेचन द्रव्य-मीमांसा में किया जा चुका है। पर यहाँ उस अजीव से मतलब है, जो जीव को अनादि से बन्धनबद्ध किये हुए है और जिससे ही वस्तुत: जीव को छुटकारा पाना है। वह है पुद्गल, और पुद्गलों में भी सभी पुद्गल नहीं क्योंकि वे तो छूटे हुए ही हैं। किन्तु कार्माणवर्गणा के जो कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्ध है और जो जीव के कषाय एवं योग के निमित्त से उससे बंधे है। तथा प्रतिसमय बंध रहे हैं। उन कर्म रूप पुद्गल स्कन्धों की यहाँ अजीव तत्त्व से विवक्षा है, जिन्हें तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिच्छ ने 'भेत्तारं कर्मभूभृताम्' पद के द्वारा 'कर्मभूभृत्' कहा है। इन्हें ही हेय ज्ञात कर आत्मा से दूर करना है। जैन दर्शनों में इन कर्मों को ज्ञानावरण आदि आठ भागों में विभक्त किया गया है। आत्मदर्शन, स्वरूपोपलब्धि सिद्धत्व आदि आत्मगुण उन्हीं के कारण अवरुद्ध रहते हैं।
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*आस्त्रव तत्त्व— जिनके द्वारा आत्मा में कर्मस्कन्धों का प्रवेश होता है उन्हें आस्त्रव कहा गया है। यह दो प्रकार का है<balloon title="नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं., गा. 29, 30" style=color:blue>*</balloon>
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#भावास्त्रव और  
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#द्रव्यास्त्रव।
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आत्मा के जिन कलुषितभावों या मन, वचन और शरीर की क्रिया से कर्म आते हैं उन भावों तथा मन, वचन और शरीर की क्रिया को भावास्त्रव तथा कर्मागमन को द्रव्यास्त्रव प्रतिपादित किया गया है। भावास्त्रव के अनेक भेद हैं- 1. मिथ्यात्व 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय और 5.योग। इनमें मिथ्यात्व के 5, अविरति के 5, प्रमाद के 15, कषाय के 4 और योग के 3 कुल 32 भेद हैं। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो कार्माणवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध आते हैं उनमें कर्मरूप शक्ति होना द्रव्यास्त्रव है। इनके ज्ञानावरण आदि आठ मूलभेद हैं और उनके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं।
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*बन्ध तत्त्व— आत्मा के जिन अशुद्ध भावों से कर्म आत्मा से बंधें वे अशुद्ध भाव (राग, द्वेष, छल-कपट, क्रोध मान आदि) भावबंध हैं ये अशुद्ध भाव कर्म व आत्मा को परस्पर चिपकाने (बांधने) में गोंद का कार्य करते हैं। कर्म पुद्गलों तथा आत्मा के प्रदेशों का जो अन्योन्य प्रवेश है। दूध-पानी की तरह उनका घुल-मिल जाना है वह द्रव्य बन्ध है। एक दूसरी तरह से भी बंध के भेद कहे गए हैं<balloon title="नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं., गा. 32, 33" style=color:blue>*</balloon>। वे हैं-
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#प्रकृति,
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#स्थिति,
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#अनुभाग और
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#प्रदेश।
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इनमें प्रकृति और प्रदेश योगों (शरीर, वचन और मन की क्रियाओं) से होते हैं। स्थिति एवं अनुभाव कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के निमित्त् से होते हैं।
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*संवरतत्त्व— आस्त्रव तत्त्व के कथन में जिन आस्त्रवों को (कर्म के आने के द्वारों को) कहा गया है उनको रोक देना संवर है।<balloon title="गृद्धपिच्छ, स.सू. 9-1; द्रव्यसं. गा. 34, 35" style=color:blue>*</balloon> कर्म के द्वार बन्द हो जाते हैं तब कर्म आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकते। जैसे- सछिद्र जलयान (नाव आदि) के छोटे-बड़े सब छिद्र बंद कर देने पर जलयान में जल का प्रवेश नहीं होता। संवर नये कर्मों का प्रवेश रोकता है। इसके कई प्रकार हैं। व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र- ये उसके भेद हैं, जो आगत कर्मों को आत्मा में आने नहीं देते।
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*निर्जरा तत्त्व— ज्ञात-अज्ञात में आये कर्मों को तप आदि के द्वारा बाहर निकालने का जो प्रयत्न है वही निर्जरा है। यह सविपाक और अविपाक के भेद से दो प्रकार की है।<balloon title="द्रव्य सं. गा. 36; त.सू. 9-3, 19, 20" style=color:blue>*</balloon> जो कर्म अपना फल देकर चला जाता हे वह सविपाक निर्जरा हैं। यह निर्जरा प्रत्येक जीव के प्रति समय होती रहती है, पर इससे बंधन नहीं टूटता है। तप के द्वारा जो बंधन तोड़ा जाता है वह अविपाक निर्जरा है। जीव को अपने उद्धार के लिए यही निर्जरा सार्थक होती है। अर्थात उसी से शिवफल (मोक्ष) प्राप्त होता है।
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*मोक्ष तत्त्व— यह वह तत्त्व एवं तथ्य है जिसके लिए मुमुक्ष अनेक भवों से प्रयत्न करते हैं। कर्म दो प्रकार के हैं। एक वे जो अतीतकाल से संबंध रखते हैं और अनादिकाल से बंधे चले आ रहे हैं तथा दूसरे वे हैं जो आगामी हैं। आगामी कर्मों का अभाव बंध हेतुओं (आस्त्रव) के अभाव (संवर) से होता है। अतीत संबंधी (पूर्वोपात्त) कर्मों का अभाव निर्जरा द्वारा होता है। इस प्रकार समस्त कर्मों का छूट जाना मोक्ष है।<balloon title="तत्व सूत्र 10-2, 3, द्रव्य सं. गा. 37" style=color:blue>*</balloon> यही शुद्ध अवस्था जीव की वास्तविक अपनी अवस्था है, जो सादि होकर अनंत है। इसी को प्राप्त करने के लिए आत्मा बाह्य और आभ्यंतर तपों, उत्तम क्षमादि धर्मों एवं चारों शुक्लध्यानों को करता है और नाना उपसर्गों एवं परीषहों को सहनकर उन पर विजय पाता है। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म- इन तीनों प्रकार के कर्मों से रहित हो जाने पर आत्मा 'सिद्ध' हो जाता है।
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==पदार्थ मीमांसा==
 
==पदार्थ मीमांसा==
उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।(2) इन नौ पदार्थों का प्रतिपादन आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय (गाथा 108) में सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। उसके बाद नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव ने भी उनका अनुसरण किया है।(3) तत्त्वार्थसूत्रकार ने सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्दर्शन कहकर उन सात तत्त्वों की ही प्ररूपणा की है। नौ पदार्थों की उन्होंने चर्चा नहीं की(4) यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के अन्त में उन्होंने पुण्य और पाप दोनों का कथन किया है। किन्तु वहाँ उनका पदार्थ के रूप में निरूपण नहीं है। बल्कि बंधतत्त्व का वर्णन करने वाले इस अध्याय में समग्र कर्म प्रकृतियों को पुण्य और पाप दो भागों में विभक्तकर साता वेदनीय, शुभायु:, शुभनाम और शुभगोत्र को पुण्य तथा असातावेदनीय, अशुभायु:, अशुभनाम और अशुभगोत्र को पाप कहा है।(5) ध्यान रहे यह विभाजन अघातिप्रकृतियों की अपेक्षा है, घातिप्रकृतियों की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वे सभी (47) पाप-प्रकृतियां ही हैं।)
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उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।<balloon title="जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108" style=color:blue>*</balloon> इन नौ पदार्थों का प्रतिपादन आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय (गाथा 108) में सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। उसके बाद नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव ने भी उनका अनुसरण किया है।<balloon title="द्रव्य सं. गा. 28। 'इह पुण्यपापग्रहणं कर्त्तव्यम्, नव पदार्था इत्यन्यैरप्युक्तत्वान्॥" style=color:blue>*</balloon> तत्त्वार्थ सूत्रकार ने सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्दर्शन कहकर उन सात तत्त्वों की ही प्ररूपणा की है। नौ पदार्थों की उन्होंने चर्चा नहीं की<balloon title="तत्व सूत्र 1-4" style=color:blue>*</balloon> यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के अन्त में उन्होंने पुण्य और पाप दोनों का कथन किया है। किन्तु वहाँ उनका पदार्थ के रूप में निरूपण नहीं है। बल्कि बंधतत्त्व का वर्णन करने वाले इस अध्याय में समग्र कर्म प्रकृतियों को पुण्य और पाप दो भागों में विभक्तकर साता वेदनीय, शुभायु:, शुभनाम और शुभगोत्र को पुण्य तथा असातावेदनीय, अशुभायु:, अशुभनाम और अशुभगोत्र को पाप कहा है।<balloon title=" तत्व सूत्र 8-25, 26" style=color:blue>*</balloon> ध्यान रहे यह विभाजन अघातिप्रकृतियों की अपेक्षा है, घातिप्रकृतियों की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वे सभी (47) पाप-प्रकृतियां ही हैं।)
(1) तत्व सूत्र 10-2, 3, द्रव्य सं. गा. 37 ।
 
(2) जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–
 
पंचास्ति., गा. 108 ।
 
(3) द्रव्य सं. गा. 28 । 'इह पुण्यपापग्रहणं कर्त्तव्यम्, नव पदार्था इत्यन्यैरप्युक्तत्वान्॥
 
(4) तत्व सूत्र 1-4 ।
 
(5) तत्व सूत्र 8-25, 26 ।
 
 
==पंचास्तिकाय मीमांसा==
 
==पंचास्तिकाय मीमांसा==
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं(1) क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी संज्ञा दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय।
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जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं<balloon title="द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25" style=color:blue>*</balloon> क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी संज्ञा दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय।
(1) द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25 ।
 
 
==अनेकान्त विमर्श==
 
==अनेकान्त विमर्श==
'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आ. सिद्धसेन ने कहा है(1) कि लोगों के उस आद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम नमस्कार करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते है(2) कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षु: (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है(3) कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है।  
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'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आचार्य [[सिद्धसेन]] ने कहा है<ref>जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ।<br /> तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स॥ - सिद्धसेन। </ref> कि लोगों के उस आद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम नमस्कार करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते है<ref>परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध- सिन्धुरविधानम्।<br /> सकल-नय-विलसितानां विरोधमथानं नमाम्यनेकान्तम्॥ -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लो. 1।</ref> कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षु: (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है<ref>एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम्।<br />एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते॥ - समन्तभद्र, युक्तयनुशासन कारिका 51</ref> कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है।  
(1) जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ।
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*अनेकान्त के भेद- यह अनेकान्त दो प्रकार का है-  
तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स॥ - सिद्धसेन।
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#सम्यगनेकान्त और  
(2) परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध- सिन्धुरविधानम्।
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#मिथ्या अनेकान्त।  
सकल-नय-विलसितानां विरोधमथानं नमाम्यनेकान्तम्॥ -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लो. 1।
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परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है<balloon title="समन्तभद्र, आप्तमी., का. 107" style=color:blue>*</balloon> निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है-  
(3) एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम्।
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#सम्यक एकान्त और  
एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते॥ - समन्तभद्र, युक्तयनुशासन कारिका 51
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#मिथ्या एकान्त।  
अनेकान्त के भेद- यह अनेकान्त दो प्रकार का है- 1. सम्यगनेकान्त और 2. मिथ्या अनेकान्त। परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है(1) निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है- 1. सम्यक् एकान्त और 2. मिथ्या एकान्त। सापेक्ष एकान्त सम्यक् एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्रहक है। अत: वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है।  
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सापेक्ष एकान्त सम्यक एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्रहक है। अत: वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है। अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।<balloon title="विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5-38-2" style=color:blue>*</balloon>
अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।2) 1. सहानेकान्त और 2. क्रमानेकान्त। एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक वादीभसिंह हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि।  
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#सहानेकान्त और  
अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेतु(3) स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं।  
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#क्रमानेकान्त।  
और तो क्या, सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।(4) वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कर्म, आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध
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एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक [[वादीभसिंह]] हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि। अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेतु<balloon title="एकस्य हेतो: साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्धा'- त.वा. 1-6-13" style=color:blue>*</balloon> स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं।  
(1) समन्तभद्र, आप्तमी., का. 107 ।
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सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।<ref>'केचित्तावदाहु:- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तेषां<br /> प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोध:।'</ref> वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कर्म, आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध सामान्य-विशेष रूप माना गया है।<ref>अपरे मन्यन्ते- अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण: सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेष: सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. 1-6-14। 2. समन्तभद्र, आप्तमी. का 104</ref> चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है।
(2) विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5-38-2 ।
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(3) एकस्य हेतो: साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्धा'- त.वा. 1-6-13 ।
 
(4) 'केचित्तावदाहु:- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तेषां
 
प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोध:।'
 
सामान्य-विशेष रूप माना गया है।(1) चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है।
 
 
==स्याद्वाद विमर्श==
 
==स्याद्वाद विमर्श==
 
स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है।  
 
स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है।  
(1) अपरे मन्यन्ते- अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण:
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*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।
सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेष: सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. 1-6-14 । 2. समन्तभद्र, आप्तमी. का 104
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समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और विद्यानन्द ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।  
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न्याय और उसके अङ्ग
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'''न्याय विद्या'''
न्यायविद्या
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'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं,(1) जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है।  
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*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है।  
न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।(2) इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।
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*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<balloon title="'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16" style=color:blue>*</balloon>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है।  
आगमों में न्याय-विद्या
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*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<balloon title="'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2" style=color:blue>*</balloon> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।
षट्खंडागम (3) में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। स्थानांगसूत्र (338)(4) में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- 1. प्रमाण-सामान्य; इसके प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। 2. हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-
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1. विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)
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'''आगमों में न्याय-विद्या'''
2. विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)
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(1) 'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16 ।
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*षट्खंडागम<balloon title="षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965" style=color:blue>*</balloon> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है।  
(2) 'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2 ।
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*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं-  
(3) षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965।
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*प्रमाण-सामान्य; इसके प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है।  
(4) 'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338 ।
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*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-
3. निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)
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#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)
4. निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)
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#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)
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#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)
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#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)
 
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-
 
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-
1. विधिसाधक विधिरूप (1) अविरुद्धोपलब्धि (2)
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#विधिसाधक विधिरूप<balloon title="धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण" style=color:blue>*</balloon> अविरुद्धोपलब्धि<balloon title=" माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58" style=color:blue>*</balloon>
2. विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि
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#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि
3. निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि
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#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि
4. निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि (3)
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#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<balloon title="डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3" style=color:blue>*</balloon>
 
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-
 
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-
1. अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।
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#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।
2. इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।
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#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।
3. यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।
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#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।
4. यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है।  
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#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है।  
अनुयोगसूत्र में(4) अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।
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अनुयोगसूत्र में<balloon title=")डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी" style=color:blue>*</balloon> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br />
प्रमाण और नय
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'''प्रमाण और नय'''<br />
तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।(5) यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।
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*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<balloon title="डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59" style=color:blue>*</balloon> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।
(1) धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण।
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*उपाय तत्त्व दो तरह का है-  
(2) माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58 ।
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#कारक,  
(3) डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पण नं. 3 ।
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#ज्ञापक।
(4) वही. पृ. 25 व उसके टिप्पण ।
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*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है-
(5) वही, पृ. 58, 59 ।
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#उपादान और
उपाय तत्त्व दो तरह का है- 1. कारक, 2. ज्ञापक। कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात् कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- 1. उपादान और 2. निमित्त (सहकारी)। उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना।
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#निमित्त (सहकारी)
ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-(1) ((1)प्रमाण और (2)नय)।
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*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं।
(1) वही पृ. 58 का मूल व टिप्पण 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण।
+
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना।
(2) 'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1
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*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-
प्रमाण-भेद
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#प्रमाण<balloon title="डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण" style=color:blue>*</balloon> और
वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद ने(1) प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है,(2) अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने(3) प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शबद में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने(4) अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है।  
+
#नय<balloon title="'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1" style=color:blue>*</balloon>
वैशेषिकों की(5) तरह बौद्धों ने(6) भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने(7), उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने(8) और
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(1) वैशेषिक सूत्र 10/1/3
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'''प्रमाण-भेद'''<br />
(2) सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3
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*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<balloon title=" वैशेषिक सूत्र 10/1/3" style=color:blue>*</balloon> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<balloon title="सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3" style=color:blue>*</balloon>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<balloon title="न्यायसूत्र 2/2/1, 2" style=color:blue>*</balloon> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है।  
(3) न्यायसू. 2/2/1, 2
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*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<balloon title="प्रश. भा., पृ. 106-111" style=color:blue>*</balloon> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है।  
(4) प्रश. भा., पृ. 106-111
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*वैशेषिकों की<balloon title="वैशे. सू. 10/1/3" style=color:blue>*</balloon>तरह बौद्धों ने<balloon title="दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4" style=color:blue>*</balloon> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है।  
(5) वैशे. सू. 10/1/3
+
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<balloon title="सांख्य का. 4" style=color:blue>*</balloon>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<balloon title="न्याय सू. 1/1/3" style=color:blue>*</balloon>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<balloon title="शावरभा. 1/1/5" style=color:blue>*</balloon> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये-  
(6) दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4
+
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और
(7) सांख्य का. 4
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#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)
(8) न्याय सू. 1/1/3
+
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<balloon title="जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि." style=color:blue>*</balloon> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br />
अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने(1) मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- 1.भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और 2. प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ(2) दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।
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'''जैन न्याय में प्रमाण-भेद'''<br />
जैनन्याय में प्रमाण-भेद
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*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<balloon title="भगवती सूत्र 5/3/191-192" style=color:blue>*</balloon> और स्थानांग सूत्र में<balloon title="स्थानांग सूत्र 338" style=color:blue>*</balloon> चार प्रमाणों का उल्लेख है-  
जैनन्याय में प्रमाण के कितने और कौन से भेद माने गये हैं, इसका विचार किया जाता है- श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र(3) और स्थानांग सूत्र में(4) चार प्रमाणों का उल्लेख है- 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3. उपमान और 4. आगम। स्थानांग सूत्र में(5) व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। संभव है सिद्धसेन(6) और हरिभद्र के(7) तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है(8) कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए।  
+
#प्रत्यक्ष,
दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में(9) मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। कुन्दकुन्द(10) के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक् और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक् और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक् कहे गये हैं वे सम्यक् परिच्छित्ति  
+
#अनुमान,
(1) शावरभा. 1/1/5
+
#उपमान और  
(2) जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.
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#आगम।
(3) .सू. 5/3/191-192,  
+
*स्थानांग सूत्र में<balloon title="स्थानांग सूत्र 185" style=color:blue>*</balloon> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है।  
(4) स्था. 338,  
+
*संभव है [[सिद्धसेन]]<balloon title="न्यायाव. का 8" style=color:blue>*</balloon> और [[हरिभद्र]] के<balloon title="अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215" style=color:blue>*</balloon> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो।
(5) स्था. 185
+
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<balloon title="आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138" style=color:blue>*</balloon> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए।  
(6) न्यायाव. का 8
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*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<balloon title="भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी" style=color:blue>*</balloon> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं।  
(7) अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215
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*कुन्दकुन्द<balloon title="नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार" style=color:blue>*</balloon> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<balloon title="यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3" style=color:blue>*</balloon>  इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<balloon title="त.सू. 1/9, 10" style=color:blue>*</balloon> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-
(8) आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138
+
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्।
(9) भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्प.
+
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31।</poem>
(10) नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार
 
कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।(1) इष्ट हैं।(1) इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार(2) के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-
 
'मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्'।
 
'तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।'
 
-तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।
 
 
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है।  
 
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है।  
(1) यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3
 
(2) त.सू. 1/9, 10
 
तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद
 
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं(1)- 1. स्मृति, 2. प्रत्यभिज्ञान, 3. तर्क, 4. अनुमान और 5. आगम। यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।
 
1.स्मृति- पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।(2)
 
2. प्रत्यभिज्ञान— अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते है। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए।
 
3. तर्क— जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक् अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है।
 
(1) माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10
 
(2) विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी
 
5. अनुमान— निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।(1) जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।
 
अनुमान के अङ्ग:- साध्य और साधन
 
इस अनुमान के मुख्य घटक (अङ्ग) दो हैं- 1. साध्य और 2. साधन। साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। अकलंकदेव ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-
 
साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।
 
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172
 
साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-
 
(1) विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी
 
'साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।' – परीक्षामुखसूत्र 3-15
 
साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है।
 
अविनाभाव-भेद
 
अविनाभाव दो प्रकार का है(1)-1. सहभाव नियम और क्रमभाव नियम। जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है।
 
(1) माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18
 
हेतु-भेद
 
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।(1)
 
माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-
 
1.उपलब्धि और 2. अनुपलब्धि। तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- 1. अविरुद्धोपलब्धि और 2. विरुद्धोपलब्धि तथा अनुपलब्धि के- 1. अविरुद्धानुपलब्धि और 2. विरुद्धानुपलब्धि इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- अविरुद्धोपलब्धि छह- 1. व्याप्त, 2. कार्य, 3. कारण, 4. पूर्वचर, 5. उत्तरचर और 6. सहचर।
 
विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- 1. विरुद्ध व्याप्य, 2. विरुद्ध कार्य, 3. विरुद्ध कारण, 4. विरुद्ध पूर्वचर, 5. विरुद्ध उत्तरचर और 6. विरुद्ध-सहचर। अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- 1. अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, 2. अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, 3. अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, 4. अविरुद्धकारणानुपलब्धि, 5. अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, 6. अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और 7. अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- 1. विरुद्धकार्यानुपलब्धि, 2. विरुद्धकारणानुपलब्धि और 3. विरुद्धस्वभावानुपलब्धि।
 
इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।
 
(1) माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक
 
2. नय-विमर्श
 
नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने(1) न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:'- (त.सू. 1-6)। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है।
 
(1) न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945
 
नय-भेद— उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं-(1) 1. द्रव्यार्थिक और 2. पर्यायार्थिक। इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं-(2) 1. नैगम, 2. संग्रह, 3. व्यवहार। तथा पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं-(3) 1. ऋजुसूत्र, 2. शब्द, 3. समभिरूढ़ और 4. एवम्भूत।
 
1.नैगम नय— जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।
 
(1) प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928
 
(2) वहीं, 6/74
 
(3) वही, पृ. 207 ।
 
2.संग्रह नय— जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है।
 
3.व्यवहार नय— संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।
 
4.ऋजुसूत्र नय— भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है।
 
5.शब्द नय— जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं
 
6.समभिरूढ़ नय— जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।'(1)
 
7.एवंभूत नय— जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है।
 
(1) 'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण।
 
वाद-विद्या
 
मध्य युग
 
दार्शनिक एवं तार्किक मध्ययुग काफी लम्बा और संघर्षशील रहा है। ईसवी दूसरी-तीसरी शती से लेकर ग्यारहवीं-बारहवीं शती तक एक हजार वर्ष का काल ऐसा रहा है, जब वैदिक और बौद्धदर्शन शास्त्रार्थ के अखाड़े बन गये थे। दोनों का प्रयत्न था कि वे अपने दर्शन की श्रेष्ठता एवं उपादेयता सिद्ध करें तथा दूसरे दर्शन की हीनता एवं हेयता साबित करें। फलत: स्वस्थ वाद चर्चा के स्थानों छलादि प्रयोग की दूषित चर्चा होने लगी और तत्त्व-संरक्षण के लिए वाद के अलावा जल्प, वितण्डा, छल, जाति, निग्रह स्थान जैसे असद् उपायों का आलम्बन लिया जाने लगा। इतना ही नहीं, उन्हें सूत्रबद्ध करके शास्त्र का रूप भी दिया गया। न्यायदर्शन में जिन प्रमाण आदि 16 पदार्थों के तत्त्वज्ञान को नि:श्रेयस की प्राप्ति का उपाय प्ररूपित किया है, उनमें वितण्डा, छल, जाति, निग्रह स्थान आदि का भी समावेश है।
 
जैनदर्शन में अध्यात्म
 
''अध्यात्म'' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे।
 
यह जगत् जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं- 1.जीव, 2.पुद्गल, 3.धर्म, 4.अधर्म, 5.आकाश और 6. काल। इनमें जीव द्रव्य चेतन है, जिसे 'आत्मा' शब्द से भी कहा जाता है। शेष पाँचों द्रव्य अजीव हैं, जिन्हें अचेतन, जड़ और अनात्म शब्दों से भी व्यवहृत किया जाता है। पुद्गल द्रव्य स्पर्श, रस, गन्ध और रूप गुणोंवाला होने से इन्द्रियों का विषय है। पर आकाश, काल, धर्म और अधर्म ये चार अजीव द्रव्य इन्द्रियगोचर नहीं हैं, क्योंकि उनमें स्पर्श, गन्ध, रस और रूप नहीं हैं। पर आगम और अनुमान से उनका अस्तित्व सिद्ध है।
 
हमारे भीतर दो द्रव्यों का मेल है- शरीर और आत्मा शरीर अचेतन या जड़ है और आत्मा सचेतन है, ज्ञाता-दृष्टा है। किन्तु वह स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्द रूप नहीं है। अत: पाँचों इन्द्रियों का विषय नहीं है। ऐसा होने पर भी वह शरीर से भिन्न अपने पृथक् अस्तित्व को मानता है। यद्यपि जन्म में तो शरीर के साथ ही आया। पर मरण के समय यह स्पष्ट हो जाता है कि देह मात्र रह गयी, आत्मा पृथक् हो गया, चला गया।
 
कार्य की उत्पत्ति में दो कारण माने जाते है- (1) उपादान और (2) निमित्त। निमित्त कारण वह होता है जो उस उपादान का सहयोगी होता है, पर कारक नहीं। यदि प्रत्येक द्रव्य के परिवर्तन में पर द्रव्य को कर्ता माना जाये तो वह परिवर्तन स्वाधीन न होगा, किन्तु पराधीन हो जायेगी और ऐसी स्थिति में द्रव्य की स्वतन्त्रता समाप्त हो जायेगी। इस सिद्धान्त के अनुसार जीव द्रव्य की संसार से मुक्ति पराधीन हो जायेगी, जब कि मुक्ति स्वाधीनता का नाम है या ऐसा कहिए कि पराधीनता से छूटने का नाम ही मुक्ति है।
 
संसार में जीवन का बंधन याद्यपि पर के साथ है, पर उस बंधन में अपराध उस जीव का स्वयं का हें वह निज के स्वरूप को न जानने की भूल से पर को अपनाता है और वहीं उसका बंधन है। और यह बंधन ही संसार है। इस बंधन से छूटने के लिये जब उसे अपनी भूल का ज्ञान होता है, तो वह उस मार्ग से विरक्त होता है।
 
सारांश यह है कि संसारी आत्मा अपने विकारी भावों के कारण कर्म से बंधा है और अपने आत्मज्ञान रूप अविकारी भाव से ही कर्मबंधन से मुक्त होता है। पर संसारी और मुक्ति दोनों अवस्था में अपने उन उन भावों का कर्त्ता वह स्वयं है, अन्य कोइर नहीं। ज्ञानी ज्ञान भाव का कर्त्ता है और अज्ञानी अज्ञानमय भावों का कर्त्ता है। समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने यही लिखा है—
 
यं करोति भावमात्मा कर्त्ता सो भवति तस्य भावस्य।
 
ज्ञानिनस्तुज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिन:॥ (संस्कृत छाया) 126॥
 
अर्थात् जो आत्मा जिस समय जिस भाव को करता है उस समय उस भाव का कर्त्ता वही है। ज्ञानी का भाव ज्ञानमय होता है और अज्ञानी का भाव अज्ञानमय होता है।
 
आचार्य अमृतचन्द्र भी लिखते हैं-
 
ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ता: सर्वे भावा भवन्ति हि।
 
सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते॥67॥
 
कर्ता और कर्म के सम्बन्ध में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं-
 
य: परिणमति स कर्ता य: परिणामो भवेत्तु तत् कर्म।
 
या परिणति: क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥51॥
 
जो पदार्थ परिवर्तित होता है वह अपनी परिणति का स्वयं कर्त्ता है और वह परिणमन उसका कर्म है और परिणति ही उसकी क्रिया हैं। ये तीनों वस्तुत: एक ही वस्तु में अभिन्न रूप में ही हैं, भिन्न रूप में नहीं।
 
एक: परिणमति सदा परिणामो जायते ते सदैकस्य।
 
एकस्य परिणति: स्यात् अनेकमप्येकमेव यत: ॥52॥
 
द्रव्य अकेला ही निरन्तर परिणमन करता है वह परिणमन भी उस एक द्रव्य में ही पाया जाता है और परिणति क्रिया उसी एक में ही होती है इसलिये सिद्ध है कर्ता, कर्म, क्रिया अनेक होकर भी एक सत्तात्मक है। तात्पर्य यह है कि हम अपने परिणमन के कर्ता स्वयं हैं दूसरे के परिणमन के कर्ता नहीं हैं। आगे चलकर आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं-
 
''आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकै:
 
दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहङ्काररूपं तम:।
 
तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत्
 
तत् किं ज्ञानधनस्य बंधनमहो भूयो भवेदात्मन:॥55॥
 
अर्थात् संसारी प्राणियों की अनादि काल से ही ऐसी दौड़ लग रही है कि मैं पर को ऐसा कर लूँ। यह मोही अज्ञानी पुरुषों का मिथ्या अहंकार है। जब तक यह टूट न हो तब तक उसका कर्म बंध नहीं छूटता। इसीलिये वह दु:खी होता है और बंधन में पड़ता है। इसी को स्पष्ट करने के लिये उन्होंने यह सिद्धांत स्थापित किया है कि-
 
आत्मभावान् करोत्यात्मा परभावान् सदा पर:।
 
आत्मैव ह्यात्मनो भावा: परस्य पर एव ते॥56॥
 
इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा अपने ही भावों का कर्ता है और परद्रव्यों के भावों का (परिवर्तनों का) कर्ता परद्रव्य ही है। आत्मभाव आत्मा ही है।
 
जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में
 
जैन कर्मसिद्धान्त इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसके माध्यम से ईश्वरादि परकर्तृत्व या सृष्टकिर्तृत्व के भ्रम को तोड़कर प्रत्येक प्राणी को अपने पुरुषार्थ द्वारा उस अनन्त चतुष्टय (अनन्त-दर्शन, अनन्त-ज्ञान, अनन्त-बल और अनन्त-वीर्य) की प्राप्ति का मार्ग सहज और प्रशस्त किया है। वस्तुत: प्रत्येक प्राणी अपने भाग्य का स्वयं सष्टा, स्वर्ग-नरक का निर्माता और स्वयं ही बंधन और मोक्ष को प्राप्त करने वाला है। इसमें ईश्वर आदि किसी अन्य माध्यम को बीच में लाकर उसे कर्तृत्व मानना घोर मिथ्यात्व बतलाया गया है। इसीलिए ''बुज्झिज्जत्ति उट्टिज्जा बंधणं परिजाणिया''- आगम का यह वाक्य स्मरणीय है जिसमें कहा गया है कि बंधन को समझो और तोड़ों, तुम्हारी अनन्तशक्ति के समक्ष बन्धन की कोई हस्ती नहीं है।
 
इसलिए जैन एवं वेदान्त दर्शन का यही स्वर बार-बार याद आता है कि रे आत्मन्। तेरी मुक्ति तेरे ही हाथ में है, तू ही बन्धन करने वाला है और तू ही अपने को मुक्त करने वाला भी है-
 
स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते।
 
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद् विमुज्यते॥
 
इसीलिए एक को दूसरों के सुख-दु:ख, जीवन-मरण का कर्ता मानना अज्ञानता है। यदि ऐसा मान लिया जाए तो फिर स्वयं कृत शुभाशुभ कर्म निष्फल सिद्ध होंगे। इस सन्दर्भ में आचार्य अमितगति का यह कथन स्मरणीय है-
 
स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्।
 
परेणदत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा॥
 
निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन।
 
विचारयन्नेवमनन्य मानस: परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम्॥
 
इस तरह जैन कर्मसिद्धान्त दैववाद नहीं अपितु अध्यात्मवाद है। क्योंकि इसमें दृश्यमान सभी अवस्थाओं को कर्मजन्य कहकर यह प्रतिपादन किया गया है कि ''आत्मा अलग है और कर्मजन्य शरीर अलग हैं।'' इस भेदविज्ञान का सर्वोच्च उपदेष्टा होने के कारण जैन कर्मसिद्धान्त अध्यात्मवाद का ही दूसरा नाम सिद्ध होता है।
 
कर्मबन्ध के चार भेद हैं — 1.कर्मों में ज्ञान आदि गुणों को घातने, सुख-दु:खादि देने का स्वभाव पड़ना प्रकृतिबंध है। 2. कर्म बंधने पर जितने समय तक आत्मा के साथ बद्ध रहेंगे, उस समय की मर्यादा का नाम स्थितिबंध है। 3.कर्म तीव्र या मन्द जैसा फल दे उस फलदान की शक्ति का पड़ना अनुभागबन्ध है। 4. कर्म परमाणुओं की संख्या के परिणाम को प्रदेशबंध कहते हैं।
 
नामकर्म का स्वरूप :
 
नामकर्म के विशेष विवेचन के पूर्व सर्वप्रथम उसका स्वरूप जान लेना भी आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है-
 
कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण।
 
अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वासुरं कुणदि ॥ प्रवचनसार 117॥
 
अर्थात् नामसंज्ञावाला कर्म जीव के शुद्ध स्वभाव को आच्छादित करके उसे मनुष्य, तिर्यंच, नारकी अथवा देवरूप करता है। धवला टीका (6/1, 9 तथा 10/13/3) में कहा है- जो नाना प्रकार की रचना निर्वृत्त करता है वह नामकर्म है।(1) शरीर, संस्थान, संहनन, वर्ण, गन्ध आदि कार्यों के करने वाले जो पुद्गल जीव में निविष्ट हैं वे ''नाम'' इस संज्ञा वाले होते हैं।(2) आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि (6/1, 9 तथा 10/13/3) में बतलाया है कि आत्मा का नारक आदि रूप नामकरण करना नामकर्म की प्रकृति (स्वभाव) है, जो आत्मा को नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता है, वह ''नामकर्म'' है।
 
इस नामकर्म की बयालीस प्रकृतियाँ तथा तैरानवे उत्तर प्रकृतियाँ हैं। इनका विश्लेषण आगे किया जायेगा। इनमें शरीर नामकर्म के अन्तर्गत शरीर के पाँच भेदों का निरूपण विशेष दृष्टव्य है। वस्तुत: औदारि क या वैक्रियिक शरीर योग्य कर्म वर्गणाओं को ग्रहण करना-यही जन्म का प्रारम्भ है। कर्मों के ही उदय से वह जीव बिना चाहे हुए मरण करके दूसरी पर्याय में उत्पन्न होता है। वहाँ वर्गणाओं का ग्रहण नामकर्म के उदय से स्वयमेव होता रहता है। ये वर्गणायें स्वयं ही पर्याप्ति, निर्माण, अंगोपांग आदि के उदय से औदारिक या वैक्रियिक शरीर के आकार परिणमन कर जाती है। जैसे- जीव के अशुद्ध भावों का निमित्त पाकर लोक में सर्वत्र फैली हुई कार्मण वर्गणायें स्वयं ही अपने-अपने स्वभावनानुसार ज्ञानावरणादि पूर्वोक्त आठ कर्मस्थ परिणमन कर जाती है। इसी तरह नामकर्म तथा गोत्रकर्म के उदय से भिन्न-भिन्न जाति की वर्गणायें स्वयं ही अनेक प्रकार के देव, नारकी, मनुष्य, तिर्यचों के शरीर के आकार रूप परिणमन कर जाती है। इस तरह यह शरीर आत्मा का कोई कारण या कार्य नहीं है, कर्मों का ही कार्य है।
 
  
(1) जैन साहित्य का इतिहास प्रथम भग पृ. 38
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'''तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद'''
(2) तदैव
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नामकर्म और उसकी प्रकृतियाँ
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तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<balloon title="माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10" style=color:blue>*</balloon>-
नामकर्म की बयालीस प्रकृतियाँ हैं। इन्हें पिण्ड प्रकृतियाँ भी कहते हैं। ये इस प्रकार हैं- गति, जाति, शरीर, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, अंगोपांग, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, आनुपूर्वी, अगुरूलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, आदेय, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, दु:स्वर, अयशस्कीर्ति, सुस्वर, यशस्कीर्ति, निर्माण और तीर्थकरत्व(1)। ये बयालीस प्रकृतियाँ ही नामकर्म के भेद (प्रकार) कहे जाते हैं। इनका विवेचन प्रस्तुत है-
+
#स्मृति,  
1.गति नामकर्म-गति, भव, संसार— ये पर्यायवाची शब्द है(2)। जिसके उदय से आत्मा भवान्तर को गमन करता है वह गति नामकर्म है। यदि वह कर्म न हो तो जीव गति रहित हो जायेगा। इसी गति नामकर्म के उदय से जीव में रहने से आयु कर्म की स्थिति रहती है और शरीर आदि कर्म उदय को प्राप्त होते हैं। नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवगति – ये इसके चार भेद हैं। जिन कर्मस्कन्धों के उदय से आत्मा को नरक, तिर्यच आदि भव प्राप्त होते हैं, उनसे युक्त जीवों को उन-उन गतियों में नरक-गति, तिर्यकगति आदि संज्ञायें प्राप्त होती हैं।
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#प्रत्यभिज्ञान,  
2.जाति नामकर्म— जिन कर्मस्कन्धों से सदृशता प्राप्त होती है, जीवां के उस सदृश परिणाम को जाति कहते हैं(3)। अर्थात् उन गतियों में अत्यभिचारी सादृश से एकीभूत स्वभाव (एकरूपका) का नाम जाति है। यदि जाति नामकर्म न हो तो खटमल-खटमल के समान, बिच्छू-बिच्छू के समान इसी प्रकार अन्य सभी सामान्यत: एक जैसे नहीं हो सकते। जाति
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#तर्क,  
(1) मूलाचार 12/193-196 तत्वार्धसूत्र 8/11
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#अनुमान और
(2) गतिर्भव: संसार: मूलाधार टीका 12/93
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#आगम। यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।
(3) जातिर्जीवानां सदृश: परिणाम – वही
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के पांच भेद हैं- एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। इनके लक्षण इस प्रकार हैं – जिसके उदय से जीव एकेन्द्रिय जाति में पैदा हो अर्थात एकेन्द्रिय शरीर धारण करे उसे एकेन्द्रिय जाति नामकर्म कहते हैं। इसी प्रकार द्वीन्द्रियादि का स्वरूप बनता है।  
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'''स्मृति'''
3.शरीरनामकर्म— जिसके उदय से आत्मा के लिए शरीर की रचना होती है वह शरीर नामकर्म है। यह कर्म आत्मा को आधार या आश्रय प्रदान करता है। क्योंकि कहा है कि ''यदि शरीर-नामकर्म स्यादात्मा विमुक्त: स्यात्(1) अर्थात यदि यह कर्म न हो तो आत्मा मुक्त हो जाय। इसके भी पांच भेद हैं – औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्माण शरीर। जिसके उदय से जीव के द्वारा ग्रहण किये गये आहार वर्गणा रूप पुद्गलस्कन्ध रस, रुधिर, मांस, अस्थि, मज्जा और शुक्र स्वभाव से परिणत होकर औदारिक शरीर रूप हो जाते हैं उसका नाम औदारिक शरीर है। इसी प्रकार अन्य भेदों का स्वरूप बनता है(2)।
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4.बन्धन नामकर्म— शरीर नामकर्म के उदय से जो आहार-वर्गणारूप पुद्गल-स्कन्ध ग्रहण किये उन पुद्गलस्कन्धों का परस्पर संश्लेष सम्बन्ध जिस कर्म के उदय से हो उसे बंधन-नामकर्म कहते हैं। यदि यह कर्म न हो तो यह शरीर बालू द्वारा बनाये हुए पुरुष के शरीर की तरह हो जाय। इसके भी औदारिक, वैक्रियिक शरीर, बन्धन आदि पांच भेद हैं(3)।
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पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<balloon title="विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी" style=color:blue>*</balloon>
5.संघात नामकर्म— जिसके उदय से औदारिक शरीर, छिद्ररहित परस्पर प्रदेशों का एक क्षेत्रावगाह रूप एकत्व प्राप्त हो उसे संघात नामकर्म कहते हैं(4) इसके भी औदारिक-शरीर संघात आदि पांच भेद हैं।
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6.संस्थान नामकर्म— जिसके उदय से औदारिक आदि शरीर के आकार की रचना हो वह संस्थान नामकर्म है। इसके छह भेद हैं- समचतुरस्त्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति कुष्जक, वामन और हुंडक (विषम आकार) संस्थान।
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'''प्रत्यभिज्ञान'''
7.संहनन नामकर्म— जिसके उदय से हड्डियों की संधि में बंधन विशेष होता है वह संहनन नामकर्म है। इसके छह भेद हैं। 1.वज्रर्षभनाराच, 2.वज्रनाराच, 3. नाराच, 4.अर्द्धनाराच, 5.कीलक और 6. असंप्राप्तासृपाटिका संहनन(5)।
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8.अंगोपांग नामकर्म— जिस कर्म के उदय से अंग और उपांगों की स्पष्ट रचना हो वह अंगोपांग नामकर्म हैं इसके तीन भेद हैं- औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर, अंगोपांग(6)
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अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते है। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए।
(1) मूलाचारवृत्ति 12/193
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(2) मूलाचारवृत्ति 12/193
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'''तर्क'''
(3) मूलाचारवृत्ति 12/193
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जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है।
(4) गोम्मटसार कर्मकाण्ड हिन्दी टीका (आर्यिका आदिमती जी) पृ. 26
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(5) मूलाचारवृत्ति 12/194
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'''अनुमान'''
(6) मूलाचारवृत्ति 12/194
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9.वर्ण नामकर्म— जिस कर्म के उदय से शरीर में कृष्ण, नील, रक्त, हरित और शुक्ल – ये वर्ण (रंग या रूप) उत्पन्न हों वह वर्ण नामकर्म है। इन 5 वर्णों से ही इसके पांच भेद बनते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर के पुद्गलों में कृष्णता प्राप्त होती है वह कृष्णवर्ण नामकर्म है। इसी तरह अन्य हैं(1)।  
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निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<balloon title="विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी" style=color:blue>*</balloon> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।
10.रस नामकर्म— इसके उदय से शरीर में जाति के अनुसार जैसे नीबू, नीम आदि में प्रतिनियत तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस उत्पन्न होते हैं। यही इस नामकर्म के पांच भेद हैं।
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11.गन्ध नामकर्म— जिसके उदय से जीव के शरीर में उसकी जाति के अनुसार गन्ध उत्पन्न हो वह गन्ध नामकर्म है। इसके दो भेद हैं- सुगन्ध और दुर्गन्ध।
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'''अनुमान के अंग:- साध्य और साधन'''
12.स्पर्श नामकर्म— जिस कर्मस्कन्ध के उदय से जीव के शरीर में उसकी जाति के अनुरूप स्पर्श उत्पन्न हो। जैसे सभी उत्पल, कमल आदि में प्रतिनियत स्पर्श देखा जाता है। इसके आठ भेद हैं- कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, सूक्ष, शीत और उष्ण।
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13.आनुपूर्वी नामकर्म— जिस कर्म के उदय से विग्रहगति में पूर्वशरीर (मरण से पहले के शरीर) का आकार रहे उसका नाम आनुपूर्वी है। इस कर्म का अभाव नहीं कहा जा सकता क्योंकि विग्रहगति में उस अवस्था के लिए निश्चित आकार उपलब्ध होता है और उत्तम शरीर ग्रहण करने के प्रति गमन की उपलब्धि भी पायी जाती है। इसके चार भेद हैं- नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व्य, तिर्यग्गति., मनुष्यगति., देवगतिंप्रायोग्यानुपूर्व।
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इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं-  
14.अगुरुलघु नामकर्म— जिसके उदय से यह जीव अनन्तानन्त पुद्गलों से पूर्ण होकर भी लोहपिण्ड की तरह गुरु (भारी) होकर न तो नीचे गिरे और रुई के समान हल्का होकर ऊपर भी न जाय उसे अगुरुलघु नामकर्म कहते हैं।
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#साध्य और  
15.उपघात नामकर्म— ''उपेत्य घात: उपघात:'' अर्थात् पास आकर घात होना उपघात है। जिस कर्म के उदय से अपने द्वारा ही किये गये गलपाश आदि बंधन और पर्वत से गिराना आदि निमित्तों से अपना घात हो जाता है वह उपघात नामकर्म है। अथवा जो कर्म जीवको अपने ही पीड़ा में कारणभूत बड़े-बड़े सींग, उदर आदि अवयवों को रचना है वह उपघात है।
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#साधन।
16.परघात नामकर्म— जिसके उदय से दूसरे का घात करने वाले अंगोपांग हो उसे परघात नामकर्म कहते हैं। जैसे बिच्छू की पूंछ आदि।
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*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-
17.उच्छ्रवास— जिसके उदय से जीव को श्वासोच्छवास हो।
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<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।
18.आतप— जिसके उदय से जीव का शरीर आतप अर्थात् उसमें अन्य को संतप्त करने वाला प्रकाश उत्पन्न होता है वह आतप है। जैसे सूर्य आदि में होने वाले पृथ्वी कायिक आदि में ऐसा तापकारी प्रकाश दिखता है।
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साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem>
(1) मूलाचारवृत्ति 12/194
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*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-
19.उद्योत— जिसके उदय से जीव के शरीर में उद्योत (शीतलता देने वाला प्रकाश) उत्पन्न होता है वह उद्योत नामकर्म है। जैसे चन्द्रमा, नक्षत्र, विमानों और जुगनू आदि जीवों के शरीरों में उद्योत होता है।
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साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:<balloon title="परीक्षामुखसूत्र 3-15" style=color:blue>*</balloon>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है।
20.विहायोगति— जिसके उदय से आकाश में गमन हो उसे विहायोगति नामकर्म कहते हैं। इसके प्रशस्त और अप्रशस्त ये दो भेद हैं।
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21.त्रस नामकर्म— जिसके उदय से द्वीन्द्रियादिक जीवों में उत्पन्न हो, उसे त्रस नामकर्म कहते हैं।
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'''अविनाभाव-भेद'''
22.स्थावर (स्थूल)- जिसके उदय से एकेन्द्रिय जीवों (स्थावर कायों) में उत्पन्न हो वह स्थावर नामकर्म है।
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23.बादर (स्थूल)— जिसके उदय से दूसरे को रोकने वाला तथा दूसरे से रुकने वाला स्थूल शरीर प्राप्त हो उसे बादर शरीर नामकर्म कहते हैं।
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अविनाभाव दो प्रकार का है<balloon title="माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18" style=color:blue>*</balloon>-
24.सूक्ष्म नामकर्म— जिसके उदय से ऐसा शरीर प्राप्त हो, जो न किसी को रोक सकता हो और न किसी से रोका जा सकता हो, उसे सूक्ष्म शरीर नामकर्म कहते हैं।
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#सहभाव नियम और  
25.पर्याप्ति— जिसके उदय से आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन-इन छह पर्याप्तियों की रचना होती है वह पर्याप्ति नामकर्म है। ये ही इसके छह भेद हैं।
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#क्रमभाव नियम।
26.अपर्याप्ति— उपर्युक्त पर्याप्तियों की पूर्णता का न होना अपर्याप्ति है।
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*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है।  
27.प्रत्येक शरीर नामकर्म— जिसके उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी हो उसे प्रत्येक शरीर नामकर्म कहते हैं।
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28.साधारण शरीर नामकर्म— जिसके उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी हों, उसे साधारण-शरीर नामकर्म कहते हैं।
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'''हेतु-भेद'''
29.स्थिर नामकर्म— जिस कर्म के उदय से शरीर की धातुएं (रस, रुधिर, मांस, मेद, मज्जा, हड्डी और शुक्र) इन सात धातुओं की स्थिरता होती है वह स्थिर नामकर्म है।  
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30.अस्थिर— जिसके उदय से इन धातुओं में उत्तरोत्तर अस्थिर रूप परिणमन होता जाता है वह अस्थिर नामकर्म है।
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इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<balloon title="माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक" style=color:blue>*</balloon>
31.शुभनामकर्म— जिसके उदय से शरीर के अंगों और उपांगों में रमणीयता (सुन्दरता) आती है वह शुभ नामकर्म है।  
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*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-
32.अशुभनामकर्म— जिसके उदय से शरीर के अवयव अमनोज्ञ हों उसे अशुभनाम कर्म कहते हैं।
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#उपलब्धि और
33-34. सुभग, दुर्भगनामकर्म— जिसके उदय से स्त्री-पुरुष या अन्य जीवों में परस्पर प्रीति उत्पन्न हो उसे सुभग नामकर्म तथा रूपादि गुणों से युक्त होते हुए भी लोगों के जिसके उदय से अप्रीतिकार प्रतीत होता है उसे दुर्भग नामकर्म कहते हैं।  
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#अनुपलब्धि।
35-36. आदेय, अनादेय नामकर्म— जिसके उदय से आदेय-प्रभा सहित शरीर हो वह आदेय तथा निष्प्रभ शरीर हो वह अनादेय नामकर्म है।
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*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के-
37-38. सुस्वर, दुस्वर नामकर्म- जिसके उदय से शोभन (मधुर) स्वर हो वह सुस्वर तथा अमनोज्ञ स्वर होता है वह दु:स्वर नामकर्म है।  
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#अविरुद्धोपलब्धि और
39-40. यश:कीर्ति, अयश:कीर्ति नामकर्म— जिसके उदय से जीव की प्रशंसा हो वह यश:कीर्ति तथा निप्दा हो वह अयश: कीर्ति नामकर्म है।
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#विरुद्धोपलब्धि 
41. निमान (निर्माण) नामकर्म— निश्चित मान (माप) को निमान कहते हैं। इसके दो भेद हैं – प्रमाण और स्थान। जिस कर्म के उदय से अंगोपांगों की रचना यथाप्रमाण और यथास्थान हो उसे निमान या निर्माण नामकर्म कहते हैं।
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*अनुपलब्धि के-
42. तीर्थंकर नामकर्म— जिस कर्म के उदय से तीन लोकों में पूज्य परम आर्हन्त्य पद प्राप्त होता है वह परमोत्कृष्ट तीर्थंकर नामकर्म है।  
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#अविरुद्धानुपलब्धि और  
इस प्रकार ये नामकर्म की 42 पिण्ड प्रकृतियाँ हैं। इन्हीं में एक-एक की अपेक्षा इनके 93 भेद हैं। इनमें अन्तिम तीर्थंकर नामकर्म का आस्त्रव दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का विधान है। यद्यपि ये एक साथ सभी सोलह भावनायें आवश्यक नहीं है। किन्तु एक दर्शनविशुद्धि अति आवश्यक होती है। दो से लेकर सोलह कारणों के विकास से भी तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है।
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#विरुद्धानुपलब्धि
जैन आचार-मीमांसा
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*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं-
जैनधर्म के अनुसार आध्यात्मिक विकास की पूर्णता हेतु श्रावक या गृहस्थधर्म (श्रावकाचार) पूर्वार्ध हे और श्रमण या मुनिधर्म (श्रमणाचार) उत्तरार्ध। श्रमणधर्म की नींव गृहस्थधर्म पर मजबूत होती है। यहाँ गृहस्थ धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिक इसलिए भी है क्योंकि श्रावकाचार की भूमिका में एक सामान्य गृहस्थ त्याग और भोग-इन दोनों को समन्वयात्मक दृष्टि में रखकर आध्यात्मिक विकास में अग्रसर होता है।
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*अविरुद्धोपलब्धि छह-
अत: प्रस्तुत प्रसंग में सर्वप्रथम श्रावकाचार का स्वरूप विवेचन आवश्यक है। यद्यपि श्रावक अर्थात् एक सद्गृहस्थ के आचार का कितना महत्त्व है? यह श्रावकाचार विषयक शताधिक बड़े-बड़े प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थों की उपलब्धि से ही पता चल जाता है। इसी दृष्टि से अतिसंक्षेप में यहाँ श्रावकाचार अर्थात् श्रावकों की सामान्य आचार पद्धति प्रस्तुत है-
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#व्याप्त,  
1.श्रावकाचार : श्रावकों की आचार-पद्धति
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#कार्य,
जैन परम्परा में आचार के स्तर पर श्रावक और साधु-ये दो श्रेणियाँ हैं। श्रावक गृहस्थ होता है, उसे जीवन के संघर्ष में हर प्रकार का कार्य करना पड़ता है। जीविकोपार्जन के साथ ही आत्मोत्थान एवं समाजोत्थान के कार्य करने पड़ते हैं। अत: उसे ऐसे ही आचारगत नियमों आदि के पालन का विधान किया गया, जो व्यवहार्य हों। क्योंकि सिद्धान्तों की वास्तविकता क्रियात्मक जीवन में ही चरितार्थ हो सकती है। इसलिए श्रावकोचित आचार-विचार के प्रतिपादन और परिपालन का विधान श्रावकाचार की विशेषता है।
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#कारण,
श्रावकाचार आदर्श जीवन के उत्तरोत्तर विकास की जीवनशैली प्रदान करता है। श्रावकाचार के परिपालन हेत साधुवर्ग सदा से श्रावकों का प्रेरणास्त्रोत रहा है। वस्तुत: साधु राग-द्वेष से परे समाज का संरक्षक होता है, वह समाज हित में श्रावकों को छोटे-छोटे स्वार्थों के त्याग करने एवं समता भाव की शिक्षा देता है।  
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#पूर्वचर,
संस्कार और उनका महत्त्व
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#उत्तरचर और
संस्कार शब्द का प्रयोग शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण, सौजन्य पूर्णता, व्याकरण सम्बन्धी शुद्धि, धार्मिक कृत्य, संस्करण या परिष्करण की क्रिया, प्रभावशीलता, प्रत्यास्मरण का कारण, स्मरणशक्ति पर पड़ने वाला प्रभाव अभिमंत्रण आदि अनेक अर्थों में होता है। सामान्यत: संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है अर्थात् संस्कार वे क्रियाएं एवं विधियाँ हैं जो व्यक्ति को किसी कार्य को करने की आधिकारिक योग्यता प्रदान करती हे। शुचिता का सन्निवेश मन का परिष्कार, धर्मार्थ-सदाचरण, शुद्धि-सन्निधान आदि ऐसी योग्यताऐं हैं जो शास्त्रविहित क्रियाओं के करने से प्राप्त होती हैं। संस्कार शब्द उन अनेक धार्मिक क्रिया-कलापों को भी व्याप्त कर लेता है जो शुद्धि, प्रायश्चित्त, व्रत आदि के अन्तर्गत आते हैं।
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#सहचर।
संस्कारों की संख्या
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*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं-  
दिगम्बर परम्परा के पुराणों में संस्कार के लिए ''क्रिया'' शब्द का प्रयोग किया गया है। यह सत्य है कि संस्कार शब्द सामान्यतया धार्मिक विधि-विधान या क्रिया का ही सूचक है। दिगम्बर जैन परम्परा के आचार्य जिनसेन कृत ''आदिपुराण'' में विविध संस्कारों का उल्लेख करते हुए इन्हें तीन भागों में विभाजित किया गया है। उसके अनुसार 1.गर्भान्वय क्रियाएँ-53, 2.दीक्षान्वय क्रियाएँ-48, और 3.कर्त्रन्वय क्रियाएँ-7 हैं। इस प्रकार इसमें कुल मिलाकर 108 संस्कारों तक की चर्चा है। श्वेताम्बर जेन परम्परा के वर्धमानसूरिकृत ''आचारदिनकर'' में संस्कारों की चर्चा करते हुए उनकी संख्या 40 बताई गई है, जिनमें से 16 संस्कार गृहस्थों के, 16 संस्कार यतियों के एवं 8 सामान्य संस्कार हैं।
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#विरुद्ध व्याप्य,
आदिपुराण और उसमें प्रतिपादित संस्कार
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#विरुद्ध कार्य,  
संस्कार, वर्ण व्यवस्था आदि का विवेचन आचार्य जिनसेन ने महापुराण के प्रथम भाग अर्थात् आदिपुराण में विस्तार से किया है। वस्तुत: महापुराण के मुख्य दो खण्ड हैं- (1) आदिपुराण और (2) उत्तरपुराण। सम्पूर्ण आदिपुराण के 47 पर्वों में से 42 पर्व पूर्ण तथा 43वें पर्व के तीन श्लोक तक आठवीं-नवीं शती के भगवज्जिनसेनाचार्य द्वारा रचित हैं और इसके अवशिष्ट पाँच पर्व तथा उत्तरपुराण की रचना जिनसेनाचार्य के बाद उनके प्रमुख शिष्य गुणभद्राचार्य के द्वारा की गई।
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#विरुद्ध कारण,  
एक गृहस्थ श्रावक को समाज की मुख्य धारा से अलग हुए बिना नैतिक, आदर्श और संस्कारित जीवन जीने के लिए आचार्य जिनसेन ने संस्कार पद्धति मुख्यत: तीन भागों में विभक्त की- (1) गर्भान्वय क्रिया, (2) दीक्षान्वय क्रिया, (3) क्रियान्वय क्रिया।
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#विरुद्ध पूर्वचर,
(1)गर्भान्वय क्रिया- इसमें श्रावक या गृहस्थ की 53 क्रियाओं (संस्कारों का वर्णन है- वह इस प्रकार है :
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#विरुद्ध उत्तरचर और
(1) आधान क्रिया (संस्कार), (2) प्रीति क्रिया, (3) सुप्रीति, (4) धृति, (5) मोद, (6) प्रियोद्भव जातकर्म, (7) नामकर्म या नामकरण, (8) बहिर्यान, (9) निषद्या, (10) अन्नप्राशन, (11) व्युष्टि (वर्षगांठ), (12) केशवाय, (13) लिपिसंख्यान, (14) उपनीति (यज्ञोपवीत), (15) व्रतावरण, (16) विवाह, (17) वर्णलाभ, (18) कुलचर्या, (19) गृहीशिता, (20) प्रशान्ति, (21) गृहत्याग, (22) दीक्षाग्रहण, (23) जिनरूपता, (24) मौनाध्ययन, (25) तीर्थकृद्भावना, (26) गणोपग्रहण, (27) स्वगुरुस्थानावाप्ति, (28) निसंगत्वात्मभावना, (29) योगनिर्वाणसम्प्राप्ति, (30) योगनिर्वाणसाधन, (31) इन्द्रोपपाद, (32) इन्द्राभिषेक, (33) इन्द्रविधिदान, (34) सुखोदय, (35) इन्द्रत्याग, (36) अवतार, (37) हिरण्योत्कृष्टजन्मग्रहण, (38) मन्दराभिषेक, (39) गुरुपूजन, (40) यौवराज्यक्रिया, (41) स्वराज्यप्राप्ति, (42) दिशांजय, (43) चक्राभिषेक, (44) साम्राज्य, (45) निष्क्रान्त, (46) योगसम्मह, (47) आर्हन्त्य क्रिया, (48) विहारक्रिया, (49) योगत्याग, (50) अग्रनिर्वृत्ति, तीन अन्य क्रिया (संस्कार) इस प्रकार गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त 53 क्रियाओं (संस्कारों) का कथन किया गया है।
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#विरुद्ध-सहचर।
2.दीक्षान्वय क्रिया— (1) अवतार, (2) वृत्तलाभ, (3) स्थानलाभ, (4) गणग्रह, (5) पूजाराध्य, (6) पुण्ययज्ञ, (7) दृढ़चर्या, (8) उपयोगिता, (9) उपनीति, (10) व्रतचर्या, (11) व्रतावतरण, (12) पाणिग्रहण (13) वर्णलाभ, (14) कुलचर्या, (15) गृहीशिता, (16) प्रशान्तता, (17) गृहत्याग, (18) दीक्षाद्य, (19) जिनरूपत्व, (20) दीक्षान्वय।
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*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है-
3.क्रियान्वय क्रिया
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#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि,  
सज्जाति: सद्गृहस्थत्वं, पारिव्रज्यं सुरेन्द्रता।
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#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि,  
साम्राज्यं पदमार्हन्त्यं, निर्वाणं चेति सप्तकम्॥
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#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि,  
(1)सज्जातित्व (सत्कुलत्व) (2) सद्गृहस्थता, (3) पारिव्रज्य, (4) सुरेन्द्रपदत्व, (5) साम्राज्यपद, (6) अर्हन्तपद, (7) निर्वाणपदप्राप्ति-ये सात क्रियान्वय क्रियाएँ हैं।
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#अविरुद्धकारणानुपलब्धि,  
धार्मिक एवं संस्कारित जीवन पद्धति के निर्माण में इन समस्त क्रियाओं का महत्व है। इन क्रियाओं (संस्कारों) में देव-शास्त्र-गुरु की पूजा भक्ति का यथायोग्य-विधान है।
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#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि,
प्रमुख सोलह संस्कार : स्वरूप और विधि
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#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और  
जिन संस्कारों से सुसंस्कृत मानव द्विज (संस्कारित श्रावक) कहा जाता है, वे संस्कार सोलह होते हैं(1)-
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#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि।
(1)आधान संस्कार, (2) प्रीति संस्कार, (3) सुप्रीति संस्कार, (4) धृति, (5) मोद, (6) जातकर्म, (7) नामकरण, (8) वहिर्यान, (9) निषद्या, (10) अन्नप्राशन, (11) व्युष्टि, (12) केशवाय अथवा चौलकर्म, (13) लिपिसंख्यान, (14) उपनीत, (15) व्रताचरण, (16) विवाह संस्कार।
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*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है-
1.आधान संस्कार— पाणिग्रहण (विवाह) के बाद सौभाग्यवती नारियाँ उस स्त्री तथा उसके पति को मण्डप में लाकर वेदी के निकट बैठातीं हैं। शुद्ध वस्त्र धारण कर संस्कार विधि इस प्रकार की जाती है-
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#विरुद्धकार्यानुपलब्धि,
सर्वप्रथम मंगलाचरण, मंगलाष्टक का पाठ, पुन: हस्तशुद्धि, भूमिशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, पात्रशुद्धि, मन्त्रस्नान, साकल्यशुद्धि, समिधाशुद्धि, होमकुण्ड शुद्धि, पुण्याहवाचन के कलश
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#विरुद्धकारणानुपलब्धि और
(1) षोडशसंस्कार : सं0 एवं प्र0 जिनवाणी कार्यालय, कलकत्ता संस्कारप्रकरण।
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#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि।
सं0 नरेन्द्र-कुमार जैन।
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*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।
की स्थापना, दीपक प्रज्वलन, तिलककरण, रक्षासूत्रबन्धन, संकल्प करना, यन्त्र का अभिषेक, आन्तिधारा, गन्धोदक, वन्दन, इसके पूर्व अर्घसमर्पण, पूजन के प्रारम्भ में स्थापना, स्वस्तिवचान, इसके बाद देव-शास्त्र-गुरुपूजा, एवं सिद्धयन्त्र का पूजन करना चाहिए। अनन्तर शास्त्रोक्त विधिपूर्वक पति और धर्मपत्नी द्वारा विश्वशान्तिप्रदायक हवन पूर्वक यह क्रिया सम्पन्न की जाती है।  
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2.प्रीति-संस्कार— प्रीति संस्कार गर्भाधान के तीसरे माह में किया जाता है। प्रथम ही गर्भिणी स्त्री को तैल, उबटन आदि लगाकर स्नानपूर्वक वस्त्र-आभूषणों से अलंकृत करें तथा शरीर पर चन्दन आदि का प्रयोग करें। इसके बाद प्रथम संस्कार की तरह हवन क्रिया करें। प्रतिष्ठाचार्य कलश के जल से दम्पती का सिंचन करें। पश्चात् त्रैलोक्यनाथो भव, त्रैकाल्यज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव, इन तीनों मन्त्रों को पढ़कर दम्पती पर पुष्प (पीले चावल छिड़के) शान्ति पाठ-विसर्जन पाठ पढ़कर थाली में भी ये पुष्प क्षेपण करें। ''ओं कं ठं व्ह: : असिआउसा गर्भार्भकं प्रमोदेन परिरक्षत स्वाहा'' यह मन्त्र पढ़कर पति गन्धोदक से गर्भिणी के शरीर का सिंचन करें, स्त्री अपने उदर पर गन्धोदक लगा सकती है।
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==आगम (श्रुत)==
3.सुप्रीति क्रिया-संस्कार— इसे सुप्रीति अथवा पुंसवन संस्कार क्रिया भी कहते हैं। यह संस्कार गर्भ के पाँचवें माह में किया जाता है। इसमें भी प्रीतिक्रिया के समान सौभाग्यवती स्त्रियाँ उस गर्भिणी को स्नान के बाद वस्त्राभूषणों से तथा चन्दन आदि से सुसज्जित कर मंगलकलश लेकर वेदी के समीप लाएं और स्वस्तिक पर मंगलकलश रखकर, लाल-वस्त्राच्छादित पाटे पर दम्पती को बैठा दें। इस समय घर पर सिन्दूर तथा अँजन (काजल) भी अवश्य लगाना चाहिए। प्रथम क्रिया की तरह यथाविधि दर्शन, पूजन एवं हवन इसमें भी किया जाता है।
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शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिक है' शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है।<balloon title="परी.मु. 3-99, 100, 101" style=color:blue>*</balloon> शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।
4.धृति संस्कार— 'धृति' को 'सीमन्तोन्नयन' अथवा सीमान्त क्रिया भी कहते हैं। इसको सातवें माह के शुभ दिन, नक्षत्र, योग, मुहूर्त आदि में करना चाहिए। इसमें प्रथम संस्कार  समान सब विधि कर लेना चाहिए। पश्चात् यन्त्र-पूजन एवं हवन करना चाहिए। इसके बाद सौभाग्यवती नारियाँ गर्भिणी के केशों में तीन माँग निकालें।
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==नय-विमर्श==
5.मोद क्रिया— मोद प्रमोद या हर्ष-ये एक ही अर्थवाले शब्द हैं। इस संस्कार में हर्षवर्धक ही सब कार्य किये जाते हैं। अत: इसको 'मोद' कहते हैं। गर्भ से नौवों माह में यह मोद क्रिया की जाती है। प्रथम संस्कार की तरह सब क्रिया करते हुए सिद्धयन्त्रपूजन और हवन करना चाहिए। अनन्तर प्रतिष्ठा-आचार्य गर्भिणी के मस्तक पर णमोकार मन्त्र पढ़ते हुए ओं श्री आदि बीजाक्षर लिखना चाहिए। पीले चावलों (पुष्पों) की वर्षा मन्त्रपूर्वक करनी चाहिए। वस्त्र-आभूषण धारण कराने के साथ हस्त में कंकण सूत्र का बन्धन करना चाहिएं शान्ति-विसर्जन पाठ पढ़ते हुए पुष्पों की वर्षा करना जरूरी है। पश्चात् गर्भिणी को सरस भोजन करना चाहिए तथा आमन्त्रित सामाजिक बन्धुओं का यथायोग्य आदर-सत्कार करें।
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नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने<balloon title="न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945" style=color:blue>*</balloon> न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:<balloon title="तत्त्वार्थसूत्र, 1-6" style=color:blue>*</balloon>'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है।  
6.जात (जन्म) कर्म— पुत्र अथवा पुत्री का जन्म होते ही पिता अथवा कुटुम्ब के व्यक्तियों को उचित है कि वे श्रीजिनेन्द्र मन्दिर में तथा अपने दरवाजे पर मधुर वाद्य-बाजे बजवाएँ। भिक्षुक जनों को दान तथा पशु-पक्षियों को दाना आदि दें। बन्धु वर्गों को वस्त्र-आभूषण, श्रीफल आदि शुभ वस्तुओं को प्रदान करें। पश्चात ''ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रौं ह्रूँ ह्र: नानानुजानुप्रजो भव भव अ सि आ उ सा स्वाहा'' यह मन्त्र पढ़कर, पुत्र का मुख देखकर, घी, दूध और मिश्री मिलाकर, सोने की चमची अथवा सोने के किसी बर्तन से उसे पाँच बार पिलाएँ। पश्चात नाल कटवाकर उसे किसी शुद्धभूमि में मोती, रत्न अथवा पीले चावलों के साथ प्रक्षिप्त करा देना चाहिए।
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7.नामकरण संस्कार— पुत्रोत्पत्ति के बारहवें, सोलहवें, बीसवें या बत्तीसवें दिन नामकरण करना चाहिए। किसी कारण बत्तीसवें दिन तक भी नामकरण न हो सके तो जन्मदिन से वर्ष पर्यन्त इच्छानुकूल या राशि आदि के आधार पर शुभ नामकरण कर सकते हैं। पूर्व के संस्कारों के समान मण्डप, वेदी, कुण्ड आदि सामग्री तैयार करना चाहिए। पुत्र सहित दम्पती को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर वेदी के सामने बैठाना चाहिए। पुत्र माँ की गोद में रहे। धर्मपत्नी पति की दाहिनी ओर बैठे। मंगलकलश भी कुण्डों के पूर्व दिशा में दम्पती के सन्मुख रखे।
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'''नय-भेद'''
8.बहिर्यान संस्कार— बहिर्यान का अर्थ बालक को घर से बाहर ले जाने का शुभारम्भ। यह संस्कार दूसरे, तीसरे अथवा चतुर्थ महीने में करना चाहिए। प्रथम बार घर से बाहर निकालने पर सर्वप्रथम समारोह पूर्वक बालक को मंदिर को जाकर जिनेन्द्रदेव का प्रथम दर्शन कराना चाहिए। अर्थात जन्म से दूसरे, तीसरे अथवा चौथे महीने में बच्चे को घर से बाहर निकालकर प्रथम ही किसी चैत्यालय अथवा मन्दिर में ले जाकर श्री जिनेन्द्रदेव के दर्शन श्रीफल के साथ मंगलाष्टक पाठ आदि पढ़ते हुए करना चाहिए। फिर यहीं केशर से बच्चे के ललाट में तिलक लगाना आवश्यक है। यह क्रिया योग्य मुहूर्त अथवा शुक्लपक्ष एवं शुभ नक्षत्र में सम्पन्न होनी चाहिए।
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9.निषद्या संस्कार— जन्म से पाँचवें मास में निषद्या वा उपवेशन विधि करना चाहिए। निषद्या वा उपवेशन का अर्थ है बिठाना अर्थात पाँचवें मास में बालक को बिठाना चाहिए। प्रथम ही भूमि-शुद्धि, पूजन और हवन कर पंचबालयति तीर्थंकरों का पूजन करें। वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर – इन पाँच बालब्रह्मचारी तीर्थंकरों को कुमार या बालयति कहते हैं।
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उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं<balloon title="प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928" style=color:blue>*</balloon>-  
अनन्तर चावल, गेहूँ, उड़द, मूँद, तिल, जवा- इनसे रंगावली चौक (रंगोली) बनाकर उस पर एक वस्त्र बिछा दें। बालक को स्नान कराकर वस्त्रालंकारों से विभूषित करें। पश्चात् ''ओं ह्रीं अहं अ सि आ उ सा नम: बालकं उपवेशयामि स्वाहा''- यह मन्त्र पढ़कर उस रंगावली पर बिछे वस्त्र पर उस बालक को पूर्व दिशा की ओर मुखकर पासन बिठाना चाहिए। अनन्तर बालक की आरती उतारकर प्रमुख जनों, विद्वानों आदि सभी का उसे आशीर्वाद प्रदान करावें।
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#द्रव्यार्थिक और  
10.अन्नप्राशन विधि या संस्कार— अन्नप्राशन का अर्थ है कि बालक को अन्न खिलाना। इसमें बालक को अन्न खिलाने का शुभारम्भ उस अन्न द्वारा बालक की पुष्टि होने के लिए यह संस्कार किया जाता है। यह संस्कार सातवें, आठवें अथवा नौवें मास में करना चाहिए।
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#पर्यायार्थिक।
11.व्युष्टि संस्कार— व्युष्टि का अर्थ वर्ष-वृद्धि अर्थात् प्रत्येक जन्म दिन के बाद उसमें एक-एक वर्ष की वृद्धि है। जिस दिन बालक का वर्ष पूर्ण हो उस दिन यह संस्कार करना चाहिए। इस संस्कार में कोइर विशेष क्रिया नहीं है, केवल जन्मोत्सव मनाना है। यहाँ पर पूर्व के समान श्रीजिनेन्द्र देव की पूजा करें एवं हवन करें। नीचे लिखे मन्त्र को पढ़कर उस बालक पर पीले चावल (पुष्प) की वर्षा करें। मन्त्र- ''उपनयन जन्मवर्षवर्धनभागी भव, वैवाहनिष्ठवर्षवर्धनभागी भव, मुनीन्द्रवर्षवर्धनभागी भव, महाराज्यवर्षवर्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्धनभागी भव, आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव''।
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*इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं<balloon title=" प्रमयरत्नमाला, 6/74" style=color:blue>*</balloon>-
अनन्तर यथाशक्ति औषधि, शास्त्र, अभय और आहार- ये चार प्रकार के दान सुपात्रों को देकर इष्टजन तथा बन्धु-वर्गों को भोजनादि द्वारा सन्तुष्ट करना चाहिए।
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#नैगम,
12.चौलकर्म अथवा केशवाय संस्कार— यह संस्कार पहले, तीसरे, पाँचवें अथवा सातवें वर्ष में करना उचित है। परन्तु यदि बालक की माता गर्भवती हो तो मुण्डन करना सर्वथा अनुचित है। माता के गर्भवती होने पर यदि मुण्डन किया जाएगा तो गर्भ पर अथवा उस बालक पर कोई विपत्ति सम्भव है। यदि बालक के पाँच वर्ष पूर्ण हो गये हों तो फिर माता का गर्भ पर किसी प्रकार का दोष नहीं कर सकता अर्थात् सातवें वर्ष में यदि माता गर्भवती भी हो तथापि बालक का विधिपूर्वक मुण्डन करा देना ही उचित है।
+
#संग्रह,
13.लिपिसंख्यान (विद्यारम्भ) संस्कार— लिपि संख्यान संस्कार अर्थात बालक को अक्षराभ्यास कराना। शास्त्रारम्भ यज्ञोपवीत के बाद होता है। लिपिसंख्यान संस्कार पाँचवें वर्ष में करना चाहिए। ग्रन्थकारों का मत है- ''प्राप्ते तु पंचमे वर्षें, विद्यारम्भं समाचरेत्।''(1) अर्थात् पाँचवें वर्ष में विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिए।
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#व्यवहार। तथा
ततोऽस्य पंचमे वर्षे, प्रथमाक्षरदर्शने।
+
*पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं<balloon title="प्रमयरत्नमाला, पृ. 207" style=color:blue>*</balloon>-
ज्ञेय: क्रियाविधिर्नाम्ना, लिपिसंख्यानसंग्रह:॥
+
#ऋजुसूत्र,
यथाविभवमत्रापि, ज्ञेय: पूजापरिच्छद:।
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#शब्द,
उपाध्याय पदे चास्य, मतोऽधीती गृहव्रती॥
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#समभिरूढ़ और
अर्थात् लिपिसंख्यान (विद्यारम्भ) संस्कार पाँचवें वर्ष में करना चाहिए। इस संस्कार में शुभ मुहूर्त अत्यावश्यक है। योग, वार, नक्षत्र-ये सब ही शुभ अर्थात विद्यावृद्धिकर होने चाहिए। उपाध्याय (गुरु) को इस विषय का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।
+
#एवम्भूत।
14.उपनीति संस्कार— इस उपनीति संस्कार को उपनयन एवं यज्ञोपवीत भी कहते हैं। इसका विधान है कि यह संस्कार ब्राह्मणों को गर्भ से आठवें वर्ष में, क्षत्रियों को ग्यारहवें वर्ष में और वैश्यों को बारहवें वर्ष में करना चाहिए। यदि किसी कारण नियत समय तक उपनयन विधान न हो सका तो ब्राह्मणों की सोलह वर्ष तक, क्षत्रियों को बाईस वर्ष तक और वैश्यों को चौबीस वर्ष तक यज्ञोपवीत संस्कार कर लेना उचित हे। पूजा-प्रतिष्ठा, जप, हवन आदि करने के लिए इस संस्कार को आवश्यक बतलाया है।
+
 
15.व्रताचरण संस्कार— यज्ञोपवीत के पश्चात् विद्याध्ययन करने का समय हे, विद्याध्ययन करते समय कटिलिंग (कमर का चिह्न), ऊरुलिंग (जंघा का चिह्न), उरोलिंग (हृदयस्थल का चिह्न) और शिरोलिंग (शिर का चिह्न) धारण करना चाहिए। (1) कटिलिंग – इस विद्यार्थी का कटिलिंग त्रिगुणित मौजीबन्धन है जो कि पूर्वोक्त रत्नत्रय का विशुद्ध अंग और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का चिह्न है। (2) ऊरुलिंग- इस शिष्य का ऊरुलिंग धुली हुई सफेद धोती तथा लँगोट है जो कि जैनधर्मी जनों के पवित्र विशाल कुल को सूचित करती है। (3) उरोलिंग- इस विद्यार्थी के हृदय का चिह्न सात सूत्रों से बनाया हुआ यज्ञोपवीत है। यह यज्ञोपवीत सात परमस्थानों का सूचक है। (4) शिरोलिंग- विद्यार्थी का शिरोलिंग शिर का मुण्डन कर शिखा (चोटी) सुरक्षित करना है। जो कि मन वचन काय की शुद्धता का सूचक है।
+
'''नैगम नय'''
यज्ञोपवीत धारण करने के पश्चात नमस्कार मन्त्र को नौ बार पढ़कर इस विद्यार्थी को प्रथम ही उपासकाचार (श्रावकाचार) गुरुमुख से पढ़ना चाहिए। गुरुमुख से पढ़ने का अभिप्राय यह है कि श्रावणों की बहुत-सी ऐसी क्रियाएँ हैं जो अनेक शास्त्रों से मन्थन करने से निकलती हैं, गुरुमुख से वे सहज ही प्राप्त हो सकते हैं।
+
जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।
16.विवाह संस्कार— विवाह संस्कार सोलह संस्कारों में अन्तिम एवं मह वपूर्ण संस्कार है। सुयोग्य वर एवं कन्या के जीवन पर्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध सहयोग और दो हृदयों के अखण्ड मिलन या संगठन को विवाह कहते हैं। विवाह, विवहन, उद्वह, उद्वहन, पाणिग्रहण, पाणिपीडन- ये सब ही एकार्थवाची शब्द हैं। ''विवहनं विवाह:'' ऐसा व्याकरण से शब्द सिद्ध होता है।
+
 
विवाह के पाँच अंग-
+
'''संग्रह नय'''
वाग्दानं च प्रदानं च, वरणं पाणिपीडनम्।
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जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है।
सप्तपदीति पंचांगो, विवाह: परिकीर्तित:॥
+
 
(1)वाग्दान (सगाई करना), (2) प्रदान (विधिपूर्वक कन्यादान), (3) वरण (माला द्वारा परस्पर स्वीकारना), (4) पाणिग्रहण (कन्या एवं वर का हाथ मिलाकर, उन हाथों पर जलधारा छोड़ना), (5) सप्तपदी (देवपूजन के साथ सात प्रदक्षिणा (फेरा) करना)- ये विवाह के पाँच अंग आचार्यों ने कहे हैं।
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'''व्यवहार नय'''
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संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।
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'''ऋजुसूत्र नय'''  
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भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है।
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'''शब्द नय'''
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जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं  
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'''समभिरूढ़ नय'''
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जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।<balloon title="'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण" style=color:blue>*</balloon>'
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'''एवंभूत नय'''
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जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवं भूतनयाभास है।
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==जैन दर्शन का उद्भव और विकास==
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'''उद्भव'''
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*आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम'* में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।
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*'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं।* 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है।
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'''विकास'''
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काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-
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*आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई॰ 200 से ई॰ 650)
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*मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई॰ 650 से ई॰ 1050)
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*उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई॰ 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन का उद्भव और विकास]]
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==जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ==
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आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय
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*ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है।
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जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ]]
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==जैन दर्शन में अध्यात्म==
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'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-
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*जीव,
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*पुद्गल,
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*धर्म,
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*अधर्म,
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*आकाश और
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*काल। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन में अध्यात्म]]
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==जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ==
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'''बीसवीं शती के जैन तार्किक'''
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बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं॰ गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं॰ माणिकचन्द्र कौन्देय, पं॰ सुखलाल संघवी, डा॰ पं॰ महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं॰ कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं॰ दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा॰ पं॰ दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ]]
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==त्रिभंगी टीका==
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#आस्रवत्रिभंगी,  
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#बंधत्रिभंगी,  
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#उदयत्रिभंगी और
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#सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर [[संस्कृत]] में टीका की है।
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*आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है।
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*इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं।
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*बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[त्रिभंगी टीका]]
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==पंचसंग्रह टीका==
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मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ [[प्राकृत]] भाषा में है। इस पर तीन [[संस्कृत]]-टीकाएँ हैं।
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#श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका,
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#आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह,  
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#सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह।
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*पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं-
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#जीवसमास,  
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#प्रकृतिसमुत्कीर्तन,  
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#कर्मस्तव,  
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#शतक और
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#सप्ततिका।
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*इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है।
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*विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है।
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*इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं।
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*कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[पंचसंग्रह टीका]]
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==मन्द्रप्रबोधिनी==
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*शौरसेनी [[प्राकृत|प्राकृत भाषा]] में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की [[संस्कृत भाषा]] में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है।
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*गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं-  
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#एक जीवकाण्ड और
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#दूसरा कर्मकाण्ड।
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जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं-
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#[[गोम्मट पंजिका]],  
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#मन्दप्रबोधिनी,  
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#कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका,  
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#संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है।  
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आगे विस्तार में पढ़ें:- [[मन्द्रप्रबोधिनी]]
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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<references/>
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==सम्बंधित लिंक==
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{{दर्शन शास्त्र}}
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{{जैन धर्म}}
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[[en:jain Philosophy]]
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[[Category: कोश]]
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[[Category:दर्शन]]
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[[Category:जैन]]
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१२:५१, २ नवम्बर २०१३ के समय का अवतरण

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जैन दर्शन / Jain philosophy

  • 'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है।
  • अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं।
  • आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।
  • जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।<balloon title="सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61" style=color:blue>*</balloon> उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।<balloon title="क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल:

काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्। दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके, जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥" style=color:blue>*</balloon>

जैन दर्शन के प्रमुख अंग

  1. द्रव्य-मीमांसा
  2. तत्त्व-मीमांसा
  3. पदार्थ-मीमांसा
  4. पंचास्तिकाय-मीमांसा
  5. अनेकान्त-विमर्श
  6. स्याद्वाद विमर्श
  7. सप्तभंगी विमर्श

द्रव्य-मीमांसा:

वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा सांख्य दर्शन और बौद्ध दर्शनों में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, वेदान्त दर्शन में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और चार्वाक दर्शन में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।<balloon title="त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:, पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:। इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै: प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।" style=color:blue>*</balloon>

  • जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं।
  • तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है।
  • भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है।
  • अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।<balloon title="पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24" style=color:blue>*</balloon> ऐसे पाँच द्रव्य हैं-
  1. पुद्गल,
  2. धर्म,
  3. अधर्म,
  4. आकाश और
  5. जीव,
  6. कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।

द्रव्य का स्वरूप

आचार्य कुन्दकुन्द<balloon title="पंचास्तिकाय, गा. 10" style=color:blue>*</balloon> और गृद्धपिच्छ<balloon title=" तत्व सूत्र 5-29, 30" style=color:blue>*</balloon> ने द्रव्य का स्वरूप दो तरह से बतलाया है। एक है, जो सत है वह द्रव्य है और सत वह है जिसमें उत्पाद (उत्पत्ति), व्यय (विनाश) और ध्रौव्य (स्थिति) ये तीनों पाये जाते हैं। विश्व की सारी वस्तुएँ इन तीन रूप हैं। उदाहरणार्थ एक स्वर्ण घट को लीजिए। जब उसे मिटाकर स्वर्णकार मुकुट बनाता है तो हमें घट का विनाश, मुकुट का उत्पाद और स्वर्ण के रूप में उसकी स्थिति तीनों दिखायी देते हैं। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य (प्रमाण) यह है<balloon title=" घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्॥– समन्तभद्र, आप्तमी. का 59" style=color:blue>*</balloon> कि घट चाहने वाले को उसके मिटने पर शोक, मुकुट चाहने वाले को मुकुट बनने पर हर्ष और स्वर्ण चाहने वाले को उसके मिटने पर न शोक होता है और मुकुट बनने पर न हर्ष होता है किन्तु वह मध्यस्थ (शोक-हर्ष विहीन) रहता है, क्योंकि वह जानता है कि स्वर्ण दोनों अवस्थाओं में विद्यमान रहता है।

द्रव्य के भेद

मूलत: द्रव्य के दो भेद हैं<balloon title="द्रव्यसं. गा. 1, त.सू. 5-1, 2, 3" style=color:blue>*</balloon>-

  1. जीव और
  2. अजीव।
  • चेतन को जीव और अचेतना को अजीव द्रव्य कहा गया है। तात्पर्य यह कि जिसमें चेतना पायी जाती है वह जीव द्रव्य है और जिसमें चेतना नहीं है वह अजीव द्रव्य है। चेतना का अर्थ है जिसके द्वारा जाना और देखा जाए और इसलिए उसके दो भेद कहे हैं-
  1. ज्ञान चेतना और
  2. दर्शन चेतना। ज्ञान चेतना को ज्ञानोपयोग और दर्शनचेतना को दर्शनोपयोग भी कहते हैं। व्यवसायात्मक रूप से जो वस्तु का विशेष ग्रहण होता है वह ज्ञानचेतना अथवा ज्ञानोपयोग है और अव्यवसाय (विकल्परहित) रूप से जो पदार्थ का सामान्य ग्रहण होता है वह दर्शनचेतना अथवा दर्शनोपयोग है। पूज्यपाद-देवनंदि ने कहा है<balloon title="सर्वार्थसिद्धि 2-9" style=color:blue>*</balloon> 'साकारं ज्ञानं निराकारं दर्शनम्' आकार विकल्प सहित ग्रहण का नाम ज्ञान है और आकार रहित ग्रहण का नाम दर्शन है।

जीवद्रव्य और उसके भेद

जीवद्रव्य दो वर्गों में विभक्त है<balloon title="तत्व सूत्र 2-10, पंचास्तिकाय, गा. 109" style=color:blue>*</balloon>-

  1. संसारी और
  2. मुक्त।
  • संसारी जीव वे हैं, जो संसार में जन्म-मरण–व्याधि आदि के चक्र में फँसे हुए हैं। ये नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चारों गतियों में बार-बार पैदा होते और मरते हैं तथा जैसा उनका कर्मविपाक होता है तदनुसार वे वहाँ अच्छा-बुरा फल भोगते हैं। ये दो तरह के हैं<balloon title="तत्व सूत्र 2-12" style=color:blue>*</balloon>-
  1. त्रस और
  2. स्थावर।
  • दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय के भेद से जीव चार प्रकार के हैं।<balloon title="तत्व सूत्र 2-14" style=color:blue>*</balloon> दो इन्द्रिय आदि जीवों की भी अनेक जातियाँ हैं। उदाहरण के लिए पंचेन्द्रिय जीवों को लें। इनके दो भेद हैं<balloon title="तत्व सूत्र 2-11, 24" style=color:blue>*</balloon>
  1. संज्ञी,
  2. असंज्ञी।
  • जिनके मन पाया जाए वे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहे जाते हैं। मनुष्य, देव, और नारकी संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव वे हैं जिनके मन न हो और जो सोच-विचार न कर सकते हों तथा न शिक्षा ग्रहण कर सकते हों। तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी, संज्ञी पंचेद्रिय सभी प्रकार के जीव होते हैं।
  • संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भी तीन भेद हैं-
  1. जलचर- जल में रहने वाले मगर, मत्स्य आदि।
  2. थलचर- ज़मीन पर चलने वाले गाय, भैंस, गदहा, शेर, हाथी आदि और
  3. नभचर- आकाश में उड़ने वाले कौआ, कोयल, कबूतर, चिड़िया आदि पक्षी।
  • जिनके मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय, स्पर्श बोध कराने वाली इन्द्रिय पायी जाती है, वे स्थावर जीव हैं।<balloon title="तत्त्वार्थसूत्र 2-13, 22। द्रव्यसं. गा. 11" style=color:blue>*</balloon> ये पांच प्रकार के होते है।–
  1. पृथ्वी-कायिक,
  2. जलकायिक,
  3. अग्निकायिक,
  4. वायुकायिक और
  5. वनस्पतिकायिक।
  • मुक्तजीव वे कहे गए हैं<balloon title=" द्रव्यसं., गा. त.सू. 10-1, 2, 3" style=color:blue>*</balloon> जो संसार के बंधनों और दु:खों से छूट मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जैन दर्शन में ऐसे जीवों को 'परम-आत्मा' परमात्मा कहा गया है। ये दो प्रकार के होते हैं-
  1. सकल परमात्मा (आप्त), और
  2. निकल परमात्मा (सिद्ध)।
  • जिनका कुछ कल अवशेष है वे सकल परमात्मा, जीवन मुक्त ईश्वर हैं। जिनका वह कल, अघाति कर्ममल दूर हो जाता है वे नि: निर्गत:- निष्क्रान्त: कलोऽघातिचतुष्टयरूपो येषाम् ते, निकल परमात्मा, सिद्ध परमेष्ठी है।

अजीवद्रव्य और उसके भेद

चेतना-रहित द्रव्य अजीव द्रव्य है। इसे निर्जीव जड़, अचेतन आदि नामों से भी कहा जाता है। जैसे- काष्ठ, लोष्ठ आदि। इसके पांच भेद हैं<balloon title="तत्व सूत्र 5-1, 2, 4, द्रव्यसं. गा. 15" style=color:blue>*</balloon>-

  1. पुद्गल,
  2. धर्म,
  3. अधर्म,
  4. आकाश और
  5. काल। इनमें पुद्गल तो सभी के नेत्र आदि पांचों इन्द्रियों द्वारा अनुभव में अहर्निश आता है। शेष चार द्रव्य अतीन्द्रिय हैं। जीव और पुद्गल की गति, स्थिति, आधार और परिणमन में अनिवार्य निमित्त (सहायक) होने से उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता सिद्ध है। तथा युक्ति और आगम से भी वे सिद्ध हैं।
  • पुद्गल<balloon title="तत्व सूत्र 5-5, द्रव्यसं. गर. 15, 16" style=color:blue>*</balloon>- जो पूरण-गलन (बनने-मिटने) के स्वभाव को लिए हुए है, उसे पुद्गल कहा गया है। जैसे घड़ा, कपड़ा, चटाई मकान, वाहन आदि। यह सूक्ष्म और स्थूल अथवा अणु और स्कन्ध के रूप में समस्त लोक में पाया जाता है। यह इन्द्रिय ग्राह्य और इन्द्रिय-अग्राह्य दोनों प्रकार का है। इसमें रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श पाये जाते हैं, जो उस के गुण हैं।
  1. रूप पांच प्रकार का है- काला, पीला, नील, लाल और सफेद। इन्हें यथा योग्य मिलाकर और रूप भी बनाये जा सकते हैं। इनका ज्ञान चक्षु:इन्द्रिय से होता है।
  2. रस भी पांच तरह का है- खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चर्परा। इनका ग्रहण रसना (जिह्वा) इन्द्रिय से होता है।
  3. गन्ध दो प्रकार का है- सुगन्ध और दुर्गन्ध। इन दोनों गन्धों का ज्ञान घ्राण (नासिका) इन्द्रिय से होता है।
  4. स्पर्श के आठ भेद हैं- कड़ा, नरम, हलका, भारी, ठंडा, गर्म, चिकना और रूखा। इन आठों स्पर्शों का ज्ञान स्पर्शन इन्द्रिय से होता है। ये रूपादि बीस गुण पुद्गल में ही पाये जाते हैं<balloon title="द्रव्यसं. गा. 15, त.सू. 5-23" style=color:blue>*</balloon>, अन्य द्रव्यों से नहीं। अत: पुद्गल को ही रूपी (मूर्तिक) और शेष द्रव्यों को अरूपी (अमूर्तिक) कहा गया है।
  • धर्म-द्रव्य- यह द्रव्य<balloon title="द्रव्य. सं. गा. 17, त.सू. 5-17, पंचास्ति. 85" style=color:blue>*</balloon> गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन (सामान्य) सहायक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार मछली की गति में जल, रेल के चलने में रेल की पटरी अथवा वृद्ध के गमन में लाठी। यह द्रव्य 'तिलेषु तैलम्' की तरह लोक में सर्वत्र व्याप्त है। इसके बिना कोई भी जीव या पुद्गल गति नहीं कर सकता। इसके कुम्हार के चाक की कीली आदि और उदाहरण दिये जा सकते हैं।
  • अधर्म द्रव्य- यह<balloon title="द्रव्यसंग्रह गा. 18, त.सू. 5-17 पंचास्ति गा. 86" style=color:blue>*</balloon> धर्म द्रव्यसे विपरीत है। यह जीवों और पुद्गलों की स्थिति (ठहरने) मं सामान्य निमित्त है। जैसे वृक्ष की छाया पथिकको ठहरने में सहायक होती है अथवा यात्री को धर्मशाला या स्टेशन। ध्यातव्य है कि यह अधर्म द्रव्य और उपर्युक्त धर्मद्रव्य दोनों अप्रेरक निमित्त हैं<balloon title="पंचास्ति, गा. 88, 89, द्रव्यसं. गा. 17, 18" style=color:blue>*</balloon> और अतीन्द्रिय हैं तथा दोनों पुण्य एवं पापरूप धर्म-अधर्म नहीं है- उनसे ये दोनों पृथक् हैं।
  • आकाश-द्रव्य<balloon title="द्रव्यं सं. गा. 19, त.सू. 5-18, पंचास्ति. गा. 90" style=color:blue>*</balloon>- यह जीव आदि सभी (पांचों) द्रव्यों को अवकाश देता है। सभी द्रव्य इसी में अवस्थित हैं। अत: सबके अवस्थान में यह सामान्य निमित्त हैं यह दो भागों में विभक्त है<balloon title="पंचास्ति गा. 91, द्रव्यसं. गा. 20" style=color:blue>*</balloon>
  1. लोकाकाश और
  2. आलोकाकाश।

जितने आकाश में, जो उसका असंख्यात वां भाग है, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रव्य पाये जाते हैं वह लोकाकाश है और उसके चारों ओर केवल एक आकाश द्रव्य है और जो चारों ओर अनन्त-अनन्त है वह अलोकाकाश हे। यह इसकी अवगाहन शक्ति की विशेषता है कि असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, असंख्यात कालाणू, एक असंख्यात प्रदेशी धर्मद्रव्य और एक असंख्यात प्रदेशी अधर्म द्रव्य ये सब परस्पर के अविरोधपूर्वक अवस्थित हैं। अलोकाकाश में आकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नहीं है।

  • कालद्रव्य- यह<balloon title="पंचास्ति गा. 100, द्रव्य सं. गा. 21, 22" style=color:blue>*</balloon>द्रव्यों की वर्तना, परिणमन, क्रिया, परत्व (ज्येष्ठत्व) और अपरत्व (कनिष्ठत्व) के व्यवहार में सहायक (उदासीन-अप्रेरक निमित्त) होता है। यह द्रव्य न हो, तो जीवों में बाल्य, युवा, वार्धक्य और पुद्गलों में नवीनता, जीर्णता जैसा परिवर्तन, ऋतु-पलटन, दिन-रात पक्ष-मास-वर्ष आदि का विभाग, आयु की अपेक्षा ज्येष्ठ-कनिष्ठ आदि का व्यवहार सम्भव नहीं है। यह दो प्रकार का है-
  1. निश्चय काल और
  2. व्यवहारकाल।

जो द्रव्यों की वर्त्तना (सत्ता) में निमित्त है वह निश्चय काल अथवा परमार्थ काल है तथा जो द्रव्यों के परिवर्तन आदि से जाना जाता है वह व्यवहार काल है।

तत्त्व मीमांसा

तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है<balloon title="श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥" style=color:blue>*</balloon>। जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।<balloon title=" कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7" style=color:blue>*</balloon>

  1. बहिरात्मा,
  2. अन्तरात्मा और
  3. परमात्मा।
  • मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।
  • आचार्य गृद्धपिच्छ ने<balloon title="गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र.सं. गा. 28" style=color:blue>*</balloon> तत्त्वार्थसूत्र<balloon title="गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र. सं. गा. 28" style=color:blue>*</balloon> में, जो 'अर्हत् प्रवचन' के नाम से प्रसिद्ध है, लिखा है तत्त्वार्थ की श्रद्धा सम्यक् दर्शन है। सही रूप में तभी देखा परखा जा सकता है जब तत्त्वार्थ की श्रद्धा हो। ये तत्त्वार्थ (तत्त्व) सात हैं<balloon title="द्र. सं. गा. 3, 4, 5; त. सू. 2-8, 9; पंचास्ति, गा. 40, 41, 42" style=color:blue>*</balloon>-
  1. जीव,
  2. अजीव,
  3. आस्त्रव,
  4. बंध,
  5. संवर,
  6. निर्जरा और
  7. मोक्ष।
  • जीव तत्त्व— यह सर्वोपरि प्रतिष्ठित और शाश्वत तत्त्व है। यह चेतना लक्षण वाला है, ज्ञाता-दृष्टा है और अनंतगुणों से सम्पन्न है। चेतना वह प्रकाश है जिसमें चेतन-अचेतन सभी पदार्थों को प्रकाशित करने की शक्ति है। वह दो प्रकार की है-
  1. ज्ञानचेतना (ज्ञानोपयोग) और
  2. दर्शनचेतना (दर्शनोपयोग) विशेष-ग्रहण का नाम ज्ञान-चेतना है और पदार्थ के सामान्य-ग्रहण का नाम दर्शनचेतना है।
  • ज्ञान चेतना के आठ भेद हैं- 1. मति, 2. श्रुत, 3. अवधि-ये तीन ज्ञान सम्यक् दर्शन के साथ होने पर सम्यक् होते है। और मिथ्यादर्शन के साथ होने पर मिथ्या भी होते हैं। इस तरह 1. सम्यक् मतिज्ञान, 2. सम्यक् श्रुतवान, 3. सम्यक् अवधिज्ञान, 4. मिथ्यामतिज्ञान, 5. मिथ्याश्रुतज्ञान 6. मिथ्या अवधिज्ञान (विभंगावधि), 7. मन:पर्ययज्ञान और 8 केवलज्ञान ये आठ ज्ञानोपयोग हैं। अंतिम दोनों ज्ञान सम्यक ही होते हैं, वे मिथ्या नहीं होते।
  • इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। और इस मतिज्ञानपूर्वक जो उत्तरकाल में चिन्तनात्मक ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। इन्द्रिय और मन निरपेक्ष एवं आत्मसापेक्ष जो मूर्तिक (पुद्गल) का सीमायुक्त ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है। इस अवधिज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थ के अनंतवें भाग को जो ज्ञान जानता है वह मन:पर्ययज्ञान है। भूत, भविष्यत और वर्तमान तीनों कालों से संबंधित और तीनों लोकों में विद्यमान समग्र पदार्थों को युगपत् जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहा गया है। यह ज्ञान जिसे हो जाता है वह वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा कहा जाता है। इन ज्ञानों के अवान्तर भेद भी जैनदर्शन में प्रतिपादित हैं, जो ज्ञातव्य हैं।
  • दर्शन चेतना के चार भेद हैं<balloon title="पंचास्ति गा. 42; स. सि. 2-9; द्रव्यसं. गा. 4" style=color:blue>*</balloon>- 1.चक्षुर्दर्शन, 2. अचक्षुर्दर्शन, 3. अवधिदर्शन और 4. केवलदर्शन। नेत्रों से होने वाला पदार्थ का सामान्य दर्शन चक्षुर्दर्शन है और शेष इन्द्रियों एवं मन से होने वाला सामान्य दर्शन अचक्षुर्दर्शन है। अवधिज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह अवधिदर्शन है। केवल ज्ञान के साथ ही जो समस्त वस्तुओं का युगपत् दर्शन होता है वह केवलदर्शन है। यह जीवतत्त्व आध्यात्मिक दृष्टि से तीन प्रकार का है<balloon title="कुन्दकुन्द, अष्टपा., मोक्ष प्रा. गा. 4, 5, 6, 7" style=color:blue>*</balloon> अर्थात इनके उत्थान की तीन श्रेणियां हैं। वे है- 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा, और 3. परमात्मा।
  • गीता में सम्भवत: ऐसे ही अन्तरात्मा को 'स्थितप्रज्ञ' कहा गया है। यह अन्तरात्मा भी तीन प्रकार है<balloon title="दौलतराम छह-ढाला 3-4, 5, 6" style=color:blue>*</balloon>(2)- 1. जघन्य, 2. मध्यम और 3. उत्तम। मिथ्यात्व का त्याग कर जिसने सम्यक्त्य (स्वयरभेद श्रद्धा) को प्राप्त कर लिया है, पर त्याग के मार्ग में अभी प्रवृत्त नहीं हो सका वह जघन्य अन्तरात्मा है। इसे जैन परिभाषा में 'अविरत-सम्यग्दृष्टि' कहा जाता है।
  • आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि तपस्वी (साधु) वही है ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन रहता है- 'ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।' यही उत्तम अन्तरात्मा तप और ध्यान द्वारा नवीन पुरातन कर्मों को निर्जीर्ण करके जब कर्मकलङ्क से मुक्त हो जाता है तो वह परमात्मा कहा जाता है। फिर उसे संसार परिभ्रमण नहीं करना पड़ता। अनन्त काल तक वह अपने अनन्त गुणों में लीन होकर शाश्वत सुख (नि:श्रेयस) का अनुभव करता है। जैन दर्शन में मुक्त जीवों की अवस्थिति लोक के अग्रभाग (सिद्धशिला) में मानी गयी है।<balloon title="नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं. गा. 14" style=color:blue>*</balloon>
  • गुणस्थान- उल्लेखनीय है कि इस जीव तत्त्व के आध्यात्मिक विकास या उन्नयन की चौदह श्रेणियां जैन आगमों में निरूपित हैं।<balloon title="नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं.4, गा. 13" style=color:blue>*</balloon> जिन्हें 'गुणस्थान' (आत्मगुणों को विकसित करने के दर्जे) संज्ञा दी गयी है। वे हैं-
  1. मिथ्यात्व,
  2. सासादन,
  3. मिश्र,
  4. अविरत,
  5. देशविरत,
  6. सर्वविरत,
  7. अप्रमत्तसंयत,
  8. अपूर्वकरण,
  9. अनिवृत्तिकरण,
  10. सूक्ष्मसाम्पराय,
  11. उपशान्त मोह,
  12. क्षीण मोह,
  13. सयोग केवली और
  14. अयोग केवली।

इन चौदह गुणस्थानों में बारहवें गुणस्थान तक जीव संसारी कहलाता है। किन्तु निश्चय ही वह तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करेगा और वहां तथा चौदहवें गुणस्थान में वह 'परमात्मा' संज्ञा को प्राप्त कर लेता है तथा कुछ ही क्षणों में गुणस्थानातीत होकर 'सिद्ध' हो जाता है।

  • अजीव तत्त्व- यों तो जीव के सिवाय सभी द्रव्य (पुद्गल आदि पांचों) अजीव हैं। उनमें किसी में भी चेतना न होने से अचेतन हैं। उनका विवेचन द्रव्य-मीमांसा में किया जा चुका है। पर यहाँ उस अजीव से मतलब है, जो जीव को अनादि से बन्धनबद्ध किये हुए है और जिससे ही वस्तुत: जीव को छुटकारा पाना है। वह है पुद्गल, और पुद्गलों में भी सभी पुद्गल नहीं क्योंकि वे तो छूटे हुए ही हैं। किन्तु कार्माणवर्गणा के जो कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्ध है और जो जीव के कषाय एवं योग के निमित्त से उससे बंधे है। तथा प्रतिसमय बंध रहे हैं। उन कर्म रूप पुद्गल स्कन्धों की यहाँ अजीव तत्त्व से विवक्षा है, जिन्हें तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिच्छ ने 'भेत्तारं कर्मभूभृताम्' पद के द्वारा 'कर्मभूभृत्' कहा है। इन्हें ही हेय ज्ञात कर आत्मा से दूर करना है। जैन दर्शनों में इन कर्मों को ज्ञानावरण आदि आठ भागों में विभक्त किया गया है। आत्मदर्शन, स्वरूपोपलब्धि सिद्धत्व आदि आत्मगुण उन्हीं के कारण अवरुद्ध रहते हैं।
  • आस्त्रव तत्त्व— जिनके द्वारा आत्मा में कर्मस्कन्धों का प्रवेश होता है उन्हें आस्त्रव कहा गया है। यह दो प्रकार का है<balloon title="नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं., गा. 29, 30" style=color:blue>*</balloon>
  1. भावास्त्रव और
  2. द्रव्यास्त्रव।

आत्मा के जिन कलुषितभावों या मन, वचन और शरीर की क्रिया से कर्म आते हैं उन भावों तथा मन, वचन और शरीर की क्रिया को भावास्त्रव तथा कर्मागमन को द्रव्यास्त्रव प्रतिपादित किया गया है। भावास्त्रव के अनेक भेद हैं- 1. मिथ्यात्व 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय और 5.योग। इनमें मिथ्यात्व के 5, अविरति के 5, प्रमाद के 15, कषाय के 4 और योग के 3 कुल 32 भेद हैं। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो कार्माणवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध आते हैं उनमें कर्मरूप शक्ति होना द्रव्यास्त्रव है। इनके ज्ञानावरण आदि आठ मूलभेद हैं और उनके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं।

  • बन्ध तत्त्व— आत्मा के जिन अशुद्ध भावों से कर्म आत्मा से बंधें वे अशुद्ध भाव (राग, द्वेष, छल-कपट, क्रोध मान आदि) भावबंध हैं ये अशुद्ध भाव कर्म व आत्मा को परस्पर चिपकाने (बांधने) में गोंद का कार्य करते हैं। कर्म पुद्गलों तथा आत्मा के प्रदेशों का जो अन्योन्य प्रवेश है। दूध-पानी की तरह उनका घुल-मिल जाना है वह द्रव्य बन्ध है। एक दूसरी तरह से भी बंध के भेद कहे गए हैं<balloon title="नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं., गा. 32, 33" style=color:blue>*</balloon>। वे हैं-
  1. प्रकृति,
  2. स्थिति,
  3. अनुभाग और
  4. प्रदेश।

इनमें प्रकृति और प्रदेश योगों (शरीर, वचन और मन की क्रियाओं) से होते हैं। स्थिति एवं अनुभाव कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के निमित्त् से होते हैं।

  • संवरतत्त्व— आस्त्रव तत्त्व के कथन में जिन आस्त्रवों को (कर्म के आने के द्वारों को) कहा गया है उनको रोक देना संवर है।<balloon title="गृद्धपिच्छ, स.सू. 9-1; द्रव्यसं. गा. 34, 35" style=color:blue>*</balloon> कर्म के द्वार बन्द हो जाते हैं तब कर्म आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकते। जैसे- सछिद्र जलयान (नाव आदि) के छोटे-बड़े सब छिद्र बंद कर देने पर जलयान में जल का प्रवेश नहीं होता। संवर नये कर्मों का प्रवेश रोकता है। इसके कई प्रकार हैं। व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र- ये उसके भेद हैं, जो आगत कर्मों को आत्मा में आने नहीं देते।
  • निर्जरा तत्त्व— ज्ञात-अज्ञात में आये कर्मों को तप आदि के द्वारा बाहर निकालने का जो प्रयत्न है वही निर्जरा है। यह सविपाक और अविपाक के भेद से दो प्रकार की है।<balloon title="द्रव्य सं. गा. 36; त.सू. 9-3, 19, 20" style=color:blue>*</balloon> जो कर्म अपना फल देकर चला जाता हे वह सविपाक निर्जरा हैं। यह निर्जरा प्रत्येक जीव के प्रति समय होती रहती है, पर इससे बंधन नहीं टूटता है। तप के द्वारा जो बंधन तोड़ा जाता है वह अविपाक निर्जरा है। जीव को अपने उद्धार के लिए यही निर्जरा सार्थक होती है। अर्थात उसी से शिवफल (मोक्ष) प्राप्त होता है।
  • मोक्ष तत्त्व— यह वह तत्त्व एवं तथ्य है जिसके लिए मुमुक्ष अनेक भवों से प्रयत्न करते हैं। कर्म दो प्रकार के हैं। एक वे जो अतीतकाल से संबंध रखते हैं और अनादिकाल से बंधे चले आ रहे हैं तथा दूसरे वे हैं जो आगामी हैं। आगामी कर्मों का अभाव बंध हेतुओं (आस्त्रव) के अभाव (संवर) से होता है। अतीत संबंधी (पूर्वोपात्त) कर्मों का अभाव निर्जरा द्वारा होता है। इस प्रकार समस्त कर्मों का छूट जाना मोक्ष है।<balloon title="तत्व सूत्र 10-2, 3, द्रव्य सं. गा. 37" style=color:blue>*</balloon> यही शुद्ध अवस्था जीव की वास्तविक अपनी अवस्था है, जो सादि होकर अनंत है। इसी को प्राप्त करने के लिए आत्मा बाह्य और आभ्यंतर तपों, उत्तम क्षमादि धर्मों एवं चारों शुक्लध्यानों को करता है और नाना उपसर्गों एवं परीषहों को सहनकर उन पर विजय पाता है। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म- इन तीनों प्रकार के कर्मों से रहित हो जाने पर आत्मा 'सिद्ध' हो जाता है।

पदार्थ मीमांसा

उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।<balloon title="जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108" style=color:blue>*</balloon> इन नौ पदार्थों का प्रतिपादन आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय (गाथा 108) में सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। उसके बाद नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव ने भी उनका अनुसरण किया है।<balloon title="द्रव्य सं. गा. 28। 'इह पुण्यपापग्रहणं कर्त्तव्यम्, नव पदार्था इत्यन्यैरप्युक्तत्वान्॥" style=color:blue>*</balloon> तत्त्वार्थ सूत्रकार ने सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्दर्शन कहकर उन सात तत्त्वों की ही प्ररूपणा की है। नौ पदार्थों की उन्होंने चर्चा नहीं की<balloon title="तत्व सूत्र 1-4" style=color:blue>*</balloon> यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के अन्त में उन्होंने पुण्य और पाप दोनों का कथन किया है। किन्तु वहाँ उनका पदार्थ के रूप में निरूपण नहीं है। बल्कि बंधतत्त्व का वर्णन करने वाले इस अध्याय में समग्र कर्म प्रकृतियों को पुण्य और पाप दो भागों में विभक्तकर साता वेदनीय, शुभायु:, शुभनाम और शुभगोत्र को पुण्य तथा असातावेदनीय, अशुभायु:, अशुभनाम और अशुभगोत्र को पाप कहा है।<balloon title=" तत्व सूत्र 8-25, 26" style=color:blue>*</balloon> ध्यान रहे यह विभाजन अघातिप्रकृतियों की अपेक्षा है, घातिप्रकृतियों की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वे सभी (47) पाप-प्रकृतियां ही हैं।)

पंचास्तिकाय मीमांसा

जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं<balloon title="द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25" style=color:blue>*</balloon> क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी संज्ञा दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय।

अनेकान्त विमर्श

'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आचार्य सिद्धसेन ने कहा है[१] कि लोगों के उस आद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम नमस्कार करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते है[२] कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षु: (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है[३] कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है।

  • अनेकान्त के भेद- यह अनेकान्त दो प्रकार का है-
  1. सम्यगनेकान्त और
  2. मिथ्या अनेकान्त।

परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है<balloon title="समन्तभद्र, आप्तमी., का. 107" style=color:blue>*</balloon> निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है-

  1. सम्यक एकान्त और
  2. मिथ्या एकान्त।

सापेक्ष एकान्त सम्यक एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्रहक है। अत: वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है। अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।<balloon title="विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5-38-2" style=color:blue>*</balloon>

  1. सहानेकान्त और
  2. क्रमानेकान्त।

एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक वादीभसिंह हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि। अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेतु<balloon title="एकस्य हेतो: साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्धा'- त.वा. 1-6-13" style=color:blue>*</balloon> स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं। सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।[४] वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कर्म, आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध सामान्य-विशेष रूप माना गया है।[५] चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है।

स्याद्वाद विमर्श

स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है।

  • समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और विद्यानन्द ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।

न्याय विद्या

  • 'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है।
  • न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<balloon title="'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16" style=color:blue>*</balloon>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है।
  • न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<balloon title="'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2" style=color:blue>*</balloon> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।

आगमों में न्याय-विद्या

  • षट्खंडागम<balloon title="षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965" style=color:blue>*</balloon> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है।
  • स्थानांगसूत्र[६] में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं-
  • प्रमाण-सामान्य; इसके प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है।
  • हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-
  1. विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)
  2. विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)
  3. निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)
  4. निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)

इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-

  1. विधिसाधक विधिरूप<balloon title="धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण" style=color:blue>*</balloon> अविरुद्धोपलब्धि<balloon title=" माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58" style=color:blue>*</balloon>
  2. विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि
  3. निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि
  4. निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<balloon title="डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3" style=color:blue>*</balloon>

इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-

  1. अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।
  2. इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।
  3. यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।
  4. यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है।

अनुयोगसूत्र में<balloon title=")डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी" style=color:blue>*</balloon> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।
प्रमाण और नय

  • तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<balloon title="डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59" style=color:blue>*</balloon> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।
  • उपाय तत्त्व दो तरह का है-
  1. कारक,
  2. ज्ञापक।
  • कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है-
  1. उपादान और
  2. निमित्त (सहकारी)।
  • उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं।
  • न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना।
  • ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-
  1. प्रमाण<balloon title="डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण" style=color:blue>*</balloon> और
  2. नय<balloon title="'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1" style=color:blue>*</balloon>

प्रमाण-भेद

  • वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद ने<balloon title=" वैशेषिक सूत्र 10/1/3" style=color:blue>*</balloon> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<balloon title="सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3" style=color:blue>*</balloon>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<balloon title="न्यायसूत्र 2/2/1, 2" style=color:blue>*</balloon> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है।
  • कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<balloon title="प्रश. भा., पृ. 106-111" style=color:blue>*</balloon> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है।
  • वैशेषिकों की<balloon title="वैशे. सू. 10/1/3" style=color:blue>*</balloon>तरह बौद्धों ने<balloon title="दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4" style=color:blue>*</balloon> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है।
  • शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<balloon title="सांख्य का. 4" style=color:blue>*</balloon>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<balloon title="न्याय सू. 1/1/3" style=color:blue>*</balloon>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<balloon title="शावरभा. 1/1/5" style=color:blue>*</balloon> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये-
  1. भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और
  2. प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)।

भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<balloon title="जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि." style=color:blue>*</balloon> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।
जैन न्याय में प्रमाण-भेद

  • जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<balloon title="भगवती सूत्र 5/3/191-192" style=color:blue>*</balloon> और स्थानांग सूत्र में<balloon title="स्थानांग सूत्र 338" style=color:blue>*</balloon> चार प्रमाणों का उल्लेख है-
  1. प्रत्यक्ष,
  2. अनुमान,
  3. उपमान और
  4. आगम।
  • स्थानांग सूत्र में<balloon title="स्थानांग सूत्र 185" style=color:blue>*</balloon> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है।
  • संभव है सिद्धसेन<balloon title="न्यायाव. का 8" style=color:blue>*</balloon> और हरिभद्र के<balloon title="अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215" style=color:blue>*</balloon> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो।
  • श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<balloon title="आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138" style=color:blue>*</balloon> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए।
  • दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<balloon title="भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी" style=color:blue>*</balloon> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं।
  • कुन्दकुन्द<balloon title="नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार" style=color:blue>*</balloon> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<balloon title="यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3" style=color:blue>*</balloon> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<balloon title="त.सू. 1/9, 10" style=color:blue>*</balloon> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-

मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्।
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31।

इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है।

तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद

तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<balloon title="माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10" style=color:blue>*</balloon>-

  1. स्मृति,
  2. प्रत्यभिज्ञान,
  3. तर्क,
  4. अनुमान और
  5. आगम। यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।

स्मृति

पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<balloon title="विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी" style=color:blue>*</balloon>

प्रत्यभिज्ञान

अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते है। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए।

तर्क जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है।

अनुमान

निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<balloon title="विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी" style=color:blue>*</balloon> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।

अनुमान के अंग:- साध्य और साधन

इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं-

  1. साध्य और
  2. साधन।
  • साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। अकलंकदेव ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-

साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172

  • साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-

साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<balloon title="परीक्षामुखसूत्र 3-15" style=color:blue>*</balloon>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है।

अविनाभाव-भेद

अविनाभाव दो प्रकार का है<balloon title="माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18" style=color:blue>*</balloon>-

  1. सहभाव नियम और
  2. क्रमभाव नियम।
  • जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है।

हेतु-भेद

इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<balloon title="माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक" style=color:blue>*</balloon>

  • माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-
  1. उपलब्धि और
  2. अनुपलब्धि।
  • तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के-
  1. अविरुद्धोपलब्धि और
  2. विरुद्धोपलब्धि
  • अनुपलब्धि के-
  1. अविरुद्धानुपलब्धि और
  2. विरुद्धानुपलब्धि
  • इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं-
  • अविरुद्धोपलब्धि छह-
  1. व्याप्त,
  2. कार्य,
  3. कारण,
  4. पूर्वचर,
  5. उत्तरचर और
  6. सहचर।
  • विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं-
  1. विरुद्ध व्याप्य,
  2. विरुद्ध कार्य,
  3. विरुद्ध कारण,
  4. विरुद्ध पूर्वचर,
  5. विरुद्ध उत्तरचर और
  6. विरुद्ध-सहचर।
  • अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है-
  1. अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि,
  2. अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि,
  3. अविरुद्धकार्यानुपलब्धि,
  4. अविरुद्धकारणानुपलब्धि,
  5. अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि,
  6. अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और
  7. अविरुद्धसहचरानुपलब्धि।
  • विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है-
  1. विरुद्धकार्यानुपलब्धि,
  2. विरुद्धकारणानुपलब्धि और
  3. विरुद्धस्वभावानुपलब्धि।
  • इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।

आगम (श्रुत)

शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिक है' शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है।<balloon title="परी.मु. 3-99, 100, 101" style=color:blue>*</balloon> शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।

नय-विमर्श

नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने<balloon title="न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945" style=color:blue>*</balloon> न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:<balloon title="तत्त्वार्थसूत्र, 1-6" style=color:blue>*</balloon>'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है।

नय-भेद

उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं<balloon title="प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928" style=color:blue>*</balloon>-

  1. द्रव्यार्थिक और
  2. पर्यायार्थिक।
  • इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं<balloon title=" प्रमयरत्नमाला, 6/74" style=color:blue>*</balloon>-
  1. नैगम,
  2. संग्रह,
  3. व्यवहार। तथा
  • पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं<balloon title="प्रमयरत्नमाला, पृ. 207" style=color:blue>*</balloon>-
  1. ऋजुसूत्र,
  2. शब्द,
  3. समभिरूढ़ और
  4. एवम्भूत।

नैगम नय जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।

संग्रह नय जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है।

व्यवहार नय संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।

ऋजुसूत्र नय भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है।

शब्द नय

जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं

समभिरूढ़ नय

जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।<balloon title="'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण" style=color:blue>*</balloon>'

एवंभूत नय

जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवं भूतनयाभास है।

जैन दर्शन का उद्भव और विकास

उद्भव

  • आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम'* में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।
  • 'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं।* 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है।

विकास

काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-

  • आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई॰ 200 से ई॰ 650)।
  • मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई॰ 650 से ई॰ 1050)।
  • उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई॰ 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन दर्शन का उद्भव और विकास

जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ

आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय

  • ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है।

जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ

जैन दर्शन में अध्यात्म

'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-

जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ

बीसवीं शती के जैन तार्किक

बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं॰ गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं॰ माणिकचन्द्र कौन्देय, पं॰ सुखलाल संघवी, डा॰ पं॰ महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं॰ कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं॰ दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा॰ पं॰ दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ

त्रिभंगी टीका

  1. आस्रवत्रिभंगी,
  2. बंधत्रिभंगी,
  3. उदयत्रिभंगी और
  4. सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर संस्कृत में टीका की है।
  • आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है।
  • इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं।
  • बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- त्रिभंगी टीका

पंचसंग्रह टीका

मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ प्राकृत भाषा में है। इस पर तीन संस्कृत-टीकाएँ हैं।

  1. श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका,
  2. आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह,
  3. सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह।
  • पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं-
  1. जीवसमास,
  2. प्रकृतिसमुत्कीर्तन,
  3. कर्मस्तव,
  4. शतक और
  5. सप्ततिका।
  • इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है।
  • विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है।
  • इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं।
  • कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:- पंचसंग्रह टीका

मन्द्रप्रबोधिनी

  • शौरसेनी प्राकृत भाषा में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की संस्कृत भाषा में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है।
  • गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं-
  1. एक जीवकाण्ड और
  2. दूसरा कर्मकाण्ड।

जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं-

  1. गोम्मट पंजिका,
  2. मन्दप्रबोधिनी,
  3. कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका,
  4. संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है।

आगे विस्तार में पढ़ें:- मन्द्रप्रबोधिनी

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ।
    तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स॥ - सिद्धसेन।
  2. परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध- सिन्धुरविधानम्।
    सकल-नय-विलसितानां विरोधमथानं नमाम्यनेकान्तम्॥ -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लो. 1।
  3. एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम्।
    एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते॥ - समन्तभद्र, युक्तयनुशासन कारिका 51
  4. 'केचित्तावदाहु:- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तेषां
    प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोध:।'
  5. अपरे मन्यन्ते- अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण: सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेष: सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. 1-6-14। 2. समन्तभद्र, आप्तमी. का 104
  6. 'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338

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