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− | यहाँ यह प्रश्न उठता है कि उपर्युक्त प्रकार से किये हुए कर्म बन्धन के हेतु नहीं बनते , इतनी ही बात है या उनका और भी कुछ महत्व | + | यहाँ यह प्रश्न उठता है कि उपर्युक्त प्रकार से किये हुए कर्म बन्धन के हेतु नहीं बनते , इतनी ही बात है या उनका और भी कुछ महत्व है। इस पर कहते है- |
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− | यदृच्छालाभसंतुष्ट: = अपने आप जो कुछ आ प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहने वाला (और ) हर्षशोकादि; द्वन्द्वातीत: = द्वन्द्वों से अतीत हुआ (तथा); विमत्सर: = मत्सरता अर्थात् ईर्षा से रहित; सिद्वौ = सिद्वि; च = और; सम: = समत्वभाव वाला | + | यदृच्छालाभसंतुष्ट: = अपने आप जो कुछ आ प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहने वाला (और ) हर्षशोकादि; द्वन्द्वातीत: = द्वन्द्वों से अतीत हुआ (तथा); विमत्सर: = मत्सरता अर्थात् ईर्षा से रहित; सिद्वौ = सिद्वि; च = और; सम: = समत्वभाव वाला पुरुष ( कर्मों को); कृत्वा = करके; अपि = भी; निबध्यते = बंधता है। |
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१२:३७, २१ मार्च २०१० के समय का अवतरण
गीता अध्याय-4 श्लोक-22/ Gita Chapter-4 Verse-22
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