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− | हे | + | हे <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। |
+ | ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> ! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्म फल के प्रशंसक वेद-वाक्यों में प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं- वे अविवेकी जन इस प्रकार की जिस पुष्पित यानी दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्म फल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती ।।42-43-44।। | ||
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− | कामात्मान: = सकामी | + | कामात्मान: = सकामी पुरुष ; वेदवादरता: = केवल फलश्रुतिमें प्रीति रखनेवाले ; स्वर्गपरा: = परम श्रेष्ठ माननेवाले (इससे बढकर) ; अन्यत् = और कुछ ; अस्ति = है ; इति = एसे ; इमाम् = इस प्रकारकी ; याम् = जिस ; पुष्पिताम् = दिखाऊ शोभायुक्त ; वादिन: = कहनेवाले हैं (वे) ; अविपश्र्चित: = अविवेकीजन ; |
जन्मकर्म फलप्रदाम् = जन्मरूप कर्मफलको देनेंवाली (और) ; भोगैश्र्चर्य गतिम् प्रति = भोग तथा एश्र्वर्यकी प्राप्तिके लिये ; क्रियाविशेष बहुलाम् = बहुत–सी क्रियाओंके विस्तारवाली ; वाचम् = वाणीको ; प्रवदन्ति = कहते हैं ; | जन्मकर्म फलप्रदाम् = जन्मरूप कर्मफलको देनेंवाली (और) ; भोगैश्र्चर्य गतिम् प्रति = भोग तथा एश्र्वर्यकी प्राप्तिके लिये ; क्रियाविशेष बहुलाम् = बहुत–सी क्रियाओंके विस्तारवाली ; वाचम् = वाणीको ; प्रवदन्ति = कहते हैं ; | ||
− | तया = उस वाणीद्वारा ; अपहृताचेतसाम् = हरे हुए चिन्तवाले (तथा) ; भोगैश्र्वर्यप्रसक्तानाम् = भोग और एश्र्वर्यमें आसक्तिवाले (उन | + | तया = उस वाणीद्वारा ; अपहृताचेतसाम् = हरे हुए चिन्तवाले (तथा) ; भोगैश्र्वर्यप्रसक्तानाम् = भोग और एश्र्वर्यमें आसक्तिवाले (उन पुरुषोंके); समाघौ = अन्त: करणमें ; व्यवसायात्मि-का = निश्र्चयात्मक ; बुद्धि: = बुद्धि ; विधीयते = होती है ; |
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१२:३४, २१ मार्च २०१० के समय का अवतरण
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गीता अध्याय-2 श्लोक-42,43,44 / Gita Chapter-2 Verse-42,43,44
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