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०८:०६, १९ मार्च २०१० का अवतरण
गीता अध्याय-2 श्लोक-51 / Gita Chapter-2 Verse-51
प्रसंग-
भगवान् ने कर्मयोग के आचरण द्वारा अनामय पद की प्राप्ति बतलायी; इस पर <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था।
¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को यह जिज्ञासा हो सकती है कि अनामय परम पद की प्राप्ति मुझे कब और कैसे होगी ? इसके लिये भगवान् दो श्लाकों में कहते हैं-
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्ता मनीषिण: ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम् ।।51।।
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क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं ।।51।।
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For wise men possessing an equiposied mind, renouncing the fruit of from the shackles of birth, attain the blissful supreme state. (51)
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हि = क्योंकि ; बुद्धियु क्ता: = बुद्धियोगयुक्त ; मनीषिण: = ज्ञानीजन ; कर्मजम् = कर्मोंसे उत्पन्न होने वाले ; फलम् = फलको ; त्याक्त्वा = त्यागकर ; जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: = जन्मरूप बन्धनसे छूटे हुए ; अनामयम् = निर्दोष अर्थात् अमृतमय ; पदम् = परमपदकों ; गच्छन्ति = प्राप्त होते हैं
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