"अश्वघोष" के अवतरणों में अंतर

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
 
(५ सदस्यों द्वारा किये गये बीच के १२ अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति १: पंक्ति १:
{{Menu}}<br />
+
{{Menu}}
 
==महाकवि अश्वघोष / [[:en:Ashvaghosh|Ashvaghosh]]==
 
==महाकवि अश्वघोष / [[:en:Ashvaghosh|Ashvaghosh]]==
[[संस्कृत]] में [[बौद्ध]] महाकाव्यों की रचना का सूत्रपात सर्वप्रथम महाकवि अश्वघोष ने ही किया था। अत: महाकवि अश्वघोष संस्कृत के प्रथम बौद्धकवि हैं। चीनी अनुश्रुतियों तथा साहित्यिक परम्परा के अनुसार महाकवि अश्वघोष सम्राट [[कनिष्क]] के राजगुरू एवम् राजकवि थे। इतिहास में कम से कम दो कनिष्कों का उल्लेख मिलता है। द्वितीय कनिष्क प्रथम कनिष्क का पौत्र था। दो कनिष्कों के कारण अश्वघोष के समय असंदिग्ध रूप से निर्णीत नहीं था।  
+
[[संस्कृत]] में [[बौद्ध]] महाकाव्यों की रचना का सूत्रपात सर्वप्रथम महाकवि अश्वघोष ने ही किया था। अत: महाकवि अश्वघोष संस्कृत के प्रथम बौद्धकवि हैं। चीनी अनुश्रुतियों तथा साहित्यिक परम्परा के अनुसार महाकवि अश्वघोष सम्राट [[कनिष्क]] के राजगुरु एवम् राजकवि थे। इतिहास में कम से कम दो कनिष्कों का उल्लेख मिलता है। द्वितीय कनिष्क प्रथम कनिष्क का पौत्र था। दो कनिष्कों के कारण अश्वघोष के समय असंदिग्ध रूप से निर्णीत नहीं था।  
*विण्टरनित्स के अनुसार कनिष्क 125 ई0 में सिंहासन पर आसीन हुआ था। तदनुसार अश्वघोष का स्थितिकाल भी द्वितीय शती ई0 माना जा सकता है। परन्तु अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि कनिष्क शक संवत का प्रवर्तक है। यह संवत्सर 78 ई0 से प्रारम्भ हुआ था। इसी आधार पर कीथ अश्वघोष का समय 100 ई0 के लगभग मानते हैं। कनिष्क का राज्यकाल 78 ई0 से 125 ई0 तक मान लेने पर महाकवि अश्वघोष का स्थितिकाल भी प्रथम शताब्दी माना जा सकता है।  
+
*विण्टरनित्स के अनुसार कनिष्क 125 ई॰ में सिंहासन पर आसीन हुआ था। तदनुसार अश्वघोष का स्थितिकाल भी द्वितीय शती ई॰ माना जा सकता है। परन्तु अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि कनिष्क शक संवत का प्रवर्तक है। यह संवत्सर 78 ई॰ से प्रारम्भ हुआ था। इसी आधार पर कीथ अश्वघोष का समय 100 ई॰ के लगभग मानते हैं। कनिष्क का राज्यकाल 78 ई॰ से 125 ई॰ तक मान लेने पर महाकवि अश्वघोष का स्थितिकाल भी प्रथम शताब्दी माना जा सकता है।  
 
*बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में भी ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनके आधार पर अश्वघोष, सम्राट कनिष्क के समकालीन सिद्ध होते हैं। चीनी परम्परा के अनुसार सम्राट कनिष्क के द्वारा काश्मीर के कुण्डलव में आयोजित अनेक अन्त:साक्ष्य भी अश्वघोष को कनिष्क का समकालीन सिद्ध करते हैं।  
 
*बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में भी ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनके आधार पर अश्वघोष, सम्राट कनिष्क के समकालीन सिद्ध होते हैं। चीनी परम्परा के अनुसार सम्राट कनिष्क के द्वारा काश्मीर के कुण्डलव में आयोजित अनेक अन्त:साक्ष्य भी अश्वघोष को कनिष्क का समकालीन सिद्ध करते हैं।  
 
*अश्वघोष कृत 'बुद्धचरित' का चीनी अनुवाद ईसा की पांचवीं शताब्दी का उपलब्ध होता है। इससे विदित होता है कि भारत में पर्याप्त रूपेण प्रचारित होने के बाद ही इसका चीनी अनुवाद हुआ होगा।  
 
*अश्वघोष कृत 'बुद्धचरित' का चीनी अनुवाद ईसा की पांचवीं शताब्दी का उपलब्ध होता है। इससे विदित होता है कि भारत में पर्याप्त रूपेण प्रचारित होने के बाद ही इसका चीनी अनुवाद हुआ होगा।  
*सम्राट [[अशोक]] का राज्यकाल ई0पू0 269 से 232 ई0 पू0 है, यह तथ्य पूर्णत: इतिहास-सिद्ध है। '[[बुद्धचरित]]' के अन्त में अशोक का उल्लेख होने के कारण यह निश्चित होता है कि अश्वघोष अशोक के परवर्ती थे।  
+
*सम्राट [[अशोक]] का राज्यकाल ई॰पू॰ 269 से 232 ई॰ पू॰ है, यह तथ्य पूर्णत: इतिहास-सिद्ध है। '[[बुद्धचरित]]' के अन्त में अशोक का उल्लेख होने के कारण यह निश्चित होता है कि अश्वघोष अशोक के परवर्ती थे।  
*चीनी परम्परा अश्वघोष को कनिष्क का दीक्षा-गुरू मानने के पक्ष में है। अश्वघोष कृत '[[अभिधर्मपिटक]]' की विभाषा नाम्नी एक व्याख्या भी प्राप्त होती है जो कनिष्क के ही समय में रची गयी थी।  
+
*चीनी परम्परा अश्वघोष को कनिष्क का दीक्षा-गुरु मानने के पक्ष में है। अश्वघोष कृत '[[अभिधर्मपिटक]]' की विभाषा नाम्नी एक व्याख्या भी प्राप्त होती है जो कनिष्क के ही समय में रची गयी थी।  
 
*अश्वघोष रचित 'शारिपुत्रप्रकरण' के आधार पर प्रो0 ल्यूडर्स ने इसका रचनाकाल [[हुविष्क]] का शासनकाल स्वीकार किया है। हुविष्क के राज्यकाल में अश्वघोष की विद्यमानता ऐतिहासिक दृष्टि से अप्रमाणिक है। इनका राज्यारोहणकाल कनिष्क की मृत्यु के बीस वर्ष के बाद है। हुविष्क के प्राप्त सिक्कों पर कहीं भी [[बुद्ध]] का नाम नहीं मिलता, किन्तु कनिष्क के सिक्कों पर बुद्ध का नाम अंकित है। कनिष्क बौद्धधर्मावलम्बी थे और हुविष्क ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। अत: अश्वघोष का उनके दरबार में विद्यमान होना सिद्ध नहीं होता।  
 
*अश्वघोष रचित 'शारिपुत्रप्रकरण' के आधार पर प्रो0 ल्यूडर्स ने इसका रचनाकाल [[हुविष्क]] का शासनकाल स्वीकार किया है। हुविष्क के राज्यकाल में अश्वघोष की विद्यमानता ऐतिहासिक दृष्टि से अप्रमाणिक है। इनका राज्यारोहणकाल कनिष्क की मृत्यु के बीस वर्ष के बाद है। हुविष्क के प्राप्त सिक्कों पर कहीं भी [[बुद्ध]] का नाम नहीं मिलता, किन्तु कनिष्क के सिक्कों पर बुद्ध का नाम अंकित है। कनिष्क बौद्धधर्मावलम्बी थे और हुविष्क ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। अत: अश्वघोष का उनके दरबार में विद्यमान होना सिद्ध नहीं होता।  
*[[कालिदास]] तथा अश्वघोष की रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है कि अश्वघोष कालिदास के परवर्ती थे। कालिदास की तिथि प्रथम शताब्दी ई0 पू0 स्वीकार करने से यह मानना पड़ता है कि दोनों रचनाओं में जो साम्य परिलक्षित होता है उससे कालिदास का ऋण अश्वघोष पर सिद्ध होता है। अश्वघोष के ऊपर कालिदास का प्रभूत प्रभाव पड़ा था, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि कालिदास ने [[कुमारसंभव]] और [[रघुवंश]] में जिन श्लोंकों को लिखा, उन्हीं का अनुकरण अश्वघोष ने बुद्धचरित में किया है। कालिदास ने विवाह के बाद प्रत्यागत [[शिव]]-[[पार्वती]] को देखने के लिए उत्सुक कैलास की ललनाओं का तथा स्वयम्वर के अनन्तर [[अज]] और [[इन्दुमती]] को देखने के लिए उत्सुक विदर्भ की रमणियों का क्रमश: कुमारसंभव तथा रघुवंश में जिन श्लोकों द्वारा वर्णन किया है, उन्हीं के भावों के माध्यम से अश्वघोष ने भी राजकुमार सिद्धार्थ को देखने के लिए उत्सुक [[कपिलवस्तु]] की सुन्दरियों का वर्णन किया है। बुद्धचरित का निम्नश्लोक-
+
*[[कालिदास]] तथा अश्वघोष की रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है कि अश्वघोष कालिदास के परवर्ती थे। कालिदास की तिथि प्रथम शताब्दी ई॰ पू॰ स्वीकार करने से यह मानना पड़ता है कि दोनों रचनाओं में जो साम्य परिलक्षित होता है उससे कालिदास का ऋण अश्वघोष पर सिद्ध होता है। अश्वघोष के ऊपर कालिदास का प्रभूत प्रभाव पड़ा था, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि कालिदास ने [[कुमारसंभव]] और [[रघुवंश]] में जिन श्लोंकों को लिखा, उन्हीं का अनुकरण अश्वघोष ने बुद्धचरित में किया है। कालिदास ने विवाह के बाद प्रत्यागत [[शिव]]-[[पार्वती]] को देखने के लिए उत्सुक कैलास की ललनाओं का तथा स्वयम्वर के अनन्तर [[अज]] और [[इन्दुमती]] को देखने के लिए उत्सुक विदर्भ की रमणियों का क्रमश: कुमारसंभव तथा रघुवंश में जिन श्लोकों द्वारा वर्णन किया है, उन्हीं के भावों के माध्यम से अश्वघोष ने भी राजकुमार सिद्धार्थ को देखने के लिए उत्सुक [[कपिलवस्तु]] की सुन्दरियों का वर्णन किया है। बुद्धचरित का निम्नश्लोक-
 
*वातायनेभ्यस्तु विनि:सृतानि परस्परायासितकुण्डलानि।<br />
 
*वातायनेभ्यस्तु विनि:सृतानि परस्परायासितकुण्डलानि।<br />
 
स्त्रीणां विरेजुर्मुखपङकजानि सक्तानि हर्म्येष्विव पङकजानि॥<balloon title="(बुद्धचरित 3।19)" style=color:blue>*</balloon>
 
स्त्रीणां विरेजुर्मुखपङकजानि सक्तानि हर्म्येष्विव पङकजानि॥<balloon title="(बुद्धचरित 3।19)" style=color:blue>*</balloon>
पंक्ति १७: पंक्ति १७:
 
==व्यक्तित्व तथा कर्तृव्य==
 
==व्यक्तित्व तथा कर्तृव्य==
 
[[संस्कृत]] के प्रथम [[बौद्ध]] महाकवि अश्वघोष के जीवनवृत्त से सम्बन्धित अत्यल्प विवरण ही प्राप्त है। 'सौन्दरनन्द' नामक महाकाव्य की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था तथा ये [[साकेत]] के निवासी थे। ये महाकवि के अतिरिक्त 'भदन्त', 'आचार्य' तथा 'महावादी' आदि उपाधियों से विभूषित थे।<balloon title="आर्य सुवर्णाक्षीपुत्रस्य साकेतकस्य भिक्षोराचार्य भदन्ताश्वघोषस्य महाकवेर्महावादिन: कृतिरियम्। (अश्वघोष- सौन्दरनन्द की पुष्पिका" style=color:blue>*</balloon> उनके काव्यों की अन्तरंग परीक्षा से ज्ञात होता है कि वे जाति से ब्राह्मण थे तथा वैदिक साहित्य, [[महाभारत]]-[[रामायण]] के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनका 'साकेतक' होना इस तथ्य का परिचायक है कि उन पर रामायण का व्यापक प्रभाव था।  
 
[[संस्कृत]] के प्रथम [[बौद्ध]] महाकवि अश्वघोष के जीवनवृत्त से सम्बन्धित अत्यल्प विवरण ही प्राप्त है। 'सौन्दरनन्द' नामक महाकाव्य की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था तथा ये [[साकेत]] के निवासी थे। ये महाकवि के अतिरिक्त 'भदन्त', 'आचार्य' तथा 'महावादी' आदि उपाधियों से विभूषित थे।<balloon title="आर्य सुवर्णाक्षीपुत्रस्य साकेतकस्य भिक्षोराचार्य भदन्ताश्वघोषस्य महाकवेर्महावादिन: कृतिरियम्। (अश्वघोष- सौन्दरनन्द की पुष्पिका" style=color:blue>*</balloon> उनके काव्यों की अन्तरंग परीक्षा से ज्ञात होता है कि वे जाति से ब्राह्मण थे तथा वैदिक साहित्य, [[महाभारत]]-[[रामायण]] के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनका 'साकेतक' होना इस तथ्य का परिचायक है कि उन पर रामायण का व्यापक प्रभाव था।  
*सम्राट कनिष्क के राजकवि अश्वघोष बौद्ध धर्म के कट्टर अनुयायी थे। इनकी रचनाओं पर बौद्ध धर्म एवम गौतम बुद्ध के उपदेशों का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। अश्वघोष ने धर्म का प्रसार करने के उद्देश्य से ही कविता लिखी थी। अपनी कविता के विषय में अश्वघोष की सुस्पष्ट उद्घोषणा है कि मुक्ति की चर्चा करनेवाली यह कविता शान्ति के लिए है, विलास के लिए नहीं।<balloon title="'इत्येषा व्युपशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भाकृति:'सौन्दरनन्द 18।63" style=color:blue>*</balloon> काव्य-रूप में यह इसलिए लिखी गई है ताकि अन्यमनस्क श्रोता को अपनी ओर आकृष्ट कर सके।  
+
*सम्राट कनिष्क के राजकवि अश्वघोष बौद्ध धर्म के कट्टर अनुयायी थे। इनकी रचनाओं पर बौद्ध धर्म एवम्  गौतम बुद्ध के उपदेशों का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। अश्वघोष ने धर्म का प्रसार करने के उद्देश्य से ही कविता लिखी थी। अपनी कविता के विषय में अश्वघोष की सुस्पष्ट उद्घोषणा है कि मुक्ति की चर्चा करनेवाली यह कविता शान्ति के लिए है, विलास के लिए नहीं।<balloon title="'इत्येषा व्युपशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भाकृति:'सौन्दरनन्द 18।63" style=color:blue>*</balloon> काव्य-रूप में यह इसलिए लिखी गई है ताकि अन्यमनस्क श्रोता को अपनी ओर आकृष्ट कर सके।  
 
*अश्वघोष बौद्ध-दर्शन-साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित थे। इनकी गणना उन कलाकारों की श्रेणी में की जाती है जो कला की यवनिका के पीछे छिपकर अपनी मान्यताओं को प्रकाशित करते हैं। इन्होंने कविता के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर जनसाधारण के लिए सरलता तथा सरलतापूर्वक सुलभ एवम् आकर्षक बनाने का सफल प्रयास किया है। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्धधर्म के सिद्धान्त प्रतिबिम्बित हुए हैं। भगवान बुद्ध के प्रति अपरिमित आस्था तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता महाकवि अश्वघोष के व्यक्तित्व की अन्यतम विशेषता है। अश्वघोष कवि होने के साथ ही संगीत मर्मज्ञ भी थे। उन्होंने अपने विचारों को प्रभावशाली बनाने के लिए काव्य के अतिरिक्त गीतात्मकता को प्रमुख साधन बनाया।<balloon title="Keith- History of Sanskrit Literature, Page 56" style=color:blue>*</balloon>
 
*अश्वघोष बौद्ध-दर्शन-साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित थे। इनकी गणना उन कलाकारों की श्रेणी में की जाती है जो कला की यवनिका के पीछे छिपकर अपनी मान्यताओं को प्रकाशित करते हैं। इन्होंने कविता के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर जनसाधारण के लिए सरलता तथा सरलतापूर्वक सुलभ एवम् आकर्षक बनाने का सफल प्रयास किया है। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्धधर्म के सिद्धान्त प्रतिबिम्बित हुए हैं। भगवान बुद्ध के प्रति अपरिमित आस्था तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता महाकवि अश्वघोष के व्यक्तित्व की अन्यतम विशेषता है। अश्वघोष कवि होने के साथ ही संगीत मर्मज्ञ भी थे। उन्होंने अपने विचारों को प्रभावशाली बनाने के लिए काव्य के अतिरिक्त गीतात्मकता को प्रमुख साधन बनाया।<balloon title="Keith- History of Sanskrit Literature, Page 56" style=color:blue>*</balloon>
 
*बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान महाकवि अश्वघोष में शास्त्र और काव्य-सर्जन की समान प्रतिभा थी। उनके व्यक्तित्व में कवित्व तथा आचार्यत्व का मणिकांचन संयोग था। उन्होंने सज्रसूची, महायानश्रद्धोत्पादशास्त्र तथा सूत्रालंकार अथवा कल्पनामण्डितिका नामक धर्म और दर्शन विषयों के अतिरिक्त शारिपुत्रप्रकरण नामक एक रूपक तथा बुद्धचरित तथा सौन्दरनन्द नामक दो महाकाव्यों की भी रचना की। इन रचनाओं में बुद्धचरित महाकवि अश्वघोष का कीर्तिस्तम्भ है। इसमें कवि ने तथागत के सात्त्विक जीवन का सरल और सरस वर्णन किया है। 'सौन्दरनन्द' अश्वघोषप्रणीत द्वितीय महाकाव्य है। इसमें भगवान बुद्ध के अनुज नन्द का चरित वर्णित है। इन रचनाओं के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर उन्हें जनसाधारण के लिए सुलभ कराना ही महाकवि अश्वघोष का मुख्य उद्देश्य था। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्ध धर्म के सिद्धान्त सुस्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हैं। अश्वघोष प्रणीत महाकाव्यों में बुद्धचरित अपूर्ण तथा सौन्दरनन्द पूर्ण रूप में मूल संस्कृत में उपलब्ध है।  
 
*बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान महाकवि अश्वघोष में शास्त्र और काव्य-सर्जन की समान प्रतिभा थी। उनके व्यक्तित्व में कवित्व तथा आचार्यत्व का मणिकांचन संयोग था। उन्होंने सज्रसूची, महायानश्रद्धोत्पादशास्त्र तथा सूत्रालंकार अथवा कल्पनामण्डितिका नामक धर्म और दर्शन विषयों के अतिरिक्त शारिपुत्रप्रकरण नामक एक रूपक तथा बुद्धचरित तथा सौन्दरनन्द नामक दो महाकाव्यों की भी रचना की। इन रचनाओं में बुद्धचरित महाकवि अश्वघोष का कीर्तिस्तम्भ है। इसमें कवि ने तथागत के सात्त्विक जीवन का सरल और सरस वर्णन किया है। 'सौन्दरनन्द' अश्वघोषप्रणीत द्वितीय महाकाव्य है। इसमें भगवान बुद्ध के अनुज नन्द का चरित वर्णित है। इन रचनाओं के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर उन्हें जनसाधारण के लिए सुलभ कराना ही महाकवि अश्वघोष का मुख्य उद्देश्य था। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्ध धर्म के सिद्धान्त सुस्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हैं। अश्वघोष प्रणीत महाकाव्यों में बुद्धचरित अपूर्ण तथा सौन्दरनन्द पूर्ण रूप में मूल संस्कृत में उपलब्ध है।  
==बुद्धचरितम==
+
==सम्बंधित लिंक==
बुद्धचरित महाकवि अश्वघोष की कवित्व-कीर्ति का आधार स्तम्भ है, किन्तु दुर्भाग्यवश यह महाकाव्य मूल रूप में अपूर्ण ही उपलब्ध है। 28 सर्गों में विरचित इस महाकाव्य के द्वितीय से लेकर त्रयोदश सर्ग तक तथा प्रथम एवम् चतुर्दश सर्ग के कुछ अंश ही मिलते हैं। इस महाकाव्य के शेष सर्ग संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। इस महाकाव्य के पूरे 28 सर्गों का चीनी तथा तिब्बती अनुवाद अवश्य उपलब्ध है। महाकाव्य का आरम्भ बुद्ध के गर्भाधान से तथा बुद्धत्व-प्राप्ति में इसकी परिणति होती है। यह महाकव्य भगवान बुद्ध के संघर्षमय सफल जीवन का ज्वलन्त, उज्ज्वल तथा मूर्त चित्रपट है। इसका चीनी भाषा में अनुवाद पांचवीं शताब्दी के प्रारम्भ में धर्मरक्ष, धर्मक्षेत्र अथवा धर्माक्षर नामक किसी भारतीय विद्वान ने ही किया था तथा तिब्बती अनुवाद नवीं शताब्दी से पूर्ववर्ती नहीं है। इसकी कथा का रूप-विन्यास [[वाल्मीकि]] कृत [[रामायण]] से मिलता-जुलता है।
+
{{बौद्ध दर्शन2}}
*[[बुद्धचरित]] 28 सर्गों में था जिसमें 14 सर्गों तक बुद्ध के जन्म से बुद्धत्व-प्राप्ति तक का वर्णन है। यह अंश अश्वघोष कृत मूल संस्कृत सम्पूर्ण उपलब्ध है। केवल प्रथम सर्ग के प्रारम्भ सात श्लोक और चतुर्दश सर्ग के बत्तीस से एक सौ बारह तक (81 श्लोक) मूल में नहीं मिलते हैं। चौखम्बा संस्कृत सीरीज तथा चौखम्बा विद्याभवन की प्रेरणा से उन श्लोकों की रचना श्री रामचन्द्रदास ने की है। उन्हीं की प्रेरणा से इस अंश का अनुवाद भी किया गया है।
+
{{कवि}}
*15 से 28 सर्गों की मूल संस्कृत प्रति भारत में बहुत दिनों से अनुपलब्ध है। उसका अनुवाद तिब्बती भाषा में मिला था। उसके आधार पर किसी चीनी विद्वान ने चीनी भाषा में अनुवाद किया तथा आक्सफोर्ट विश्वविद्यालय से संस्कृत अध्यापक डाक्टर जॉन्सटन ने उसे अंग्रेजी में लिखा। इसका अनुवाद श्रीसूर्यनारायण चौधरी ने हिन्दी में किया है, जिसको श्री रामचन्द्रदास ने संस्कृतपद्यमय काव्य में परिणत किया है।<balloon title="बुद्धचरितम्, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी 1988 ई0 प्रथम भाग प्राक्कथन पृ0 7-8" style=color:blue>*</balloon>
+
{{बौद्ध दर्शन}}
*बुद्धचरित और सौन्दरनन्द महाकाव्य के अतिरिक्त अश्वघोष के दो रूपक-शारिपुत्रप्रकरण तथा राष्ट्रपाल उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त अश्वघोष की जातक की शैली पर लिखित 'कल्पना मण्डितिका' कथाओं का संग्रहग्रन्थ है।<balloon title="संस्कृत साहित्य का इतिहास, आचार्य बलदेव उपाध्याय पृ0 70-73" style=color:blue>*</balloon>
 
==कथावस्तु==
 
*बुद्धचरित की कथावस्तु गौतम बुद्ध के जन्म से लेकर निर्वाण-प्राप्ति तथा धर्मोपदेश देने तक परिव्याप्त है। कपिलवस्तु जनपद के शाक्वंशीय राजा शुद्धोदन की पत्नी महारानी मायादेवी एक रात स्वप्न में एक गजराज को उनके शरीर में प्रविष्ट होते देखती है। लुम्बिनीवन के पावन वातावरण में वह एक बालक को जन्म देती है। बालक भविष्यवाणी करता है- ''मैंने लोककल्याण तथा ज्ञानार्जन के लिए जन्म लिया है।'' ब्राह्मण भी तत्कालीन शकुनों और शुभलक्षणों के आधार पर भविष्यवाणी करते हैं कि यह बालक भविष्य में ऋषि अथवा सम्राट होगा। महर्षि असित भी राजा से स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि आपका पुत्र बोध के लिए जन्मा है। बालक को देखते ही राजा की आंखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है। राजा अपने शोक का कारण बताता है कि जब यह बालक युवावस्था में धर्म-प्रवर्तन करेगा तब मैं नहीं रहूँगा। बालक का सर्वार्थसिद्ध नामकरण किया जाता है। कुमार सर्वार्थसिद्ध की शैशवावस्था से ही सांसारिक विषयों की ओर आसक्त करने की चेष्टा की गई। उन्हें राजप्रासाद के भीतर रखा जाने लगा तथा बाह्य-भ्रमण प्रतिषिद्ध कर दिया गया। उनका विवाह यशोधरा नामक सुन्दरी से किया गया, जिससे राहुल नामक पुत्र हुआ।
 
*समृद्ध राज्य के भोग-विलास, सुन्दरी पत्नी तथा नवजात पुत्र का मोह भी उन्हें सांसारिक पाश में आबद्ध नहीं कर सका। वे सबका परित्याग कर अन्तत: विहार-यात्रा के लिए बाहर निकल पड़े। देवताओं के प्रयास से सर्वार्थसिद्ध सर्वप्रथम राजमार्ग पर एक वृद्ध पुरुष को देखते हैं तथा प्रत्येक मनुष्य की परिणति इसी दुर्गति में देखकर उनका चित्त उद्धिग्न हो उठता है। वे बहुत दिनों तक वृद्धावस्था के विषय में ही विचार करते रहे। उद्यान भूमि में आनन्द की उपलब्धि को असम्भव समझकर वे पुन: चित्त की शान्ति के लिए बाहर निकल पड़ते हैं। इस बार देवताओं के प्रयास से उन्हें एक रोगी दिखाई देता है। सारथि से उन्हें ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण संसार में कोई भी रोग-मुक्त नहीं है। रोग-शोक से सन्तप्त होने पर भी प्रसन्न मनुष्यों की अज्ञानता पर उन्हें आश्चर्य होता है और वे पुन: उद्विग्न होकर लौट आते हैं।
 
*तृतीय विहार-यात्रा के समय सर्वार्थसिद्ध को श्मशान की ओर ले जाया जाता हुआ मृत व्यक्ति का शव दिखाई देता है। सारथि से उन्हें ज्ञात होता है कि प्रत्येक व्यक्ति का अन्त इसी प्रकार अवश्यम्भावी है इससे उद्धिग्न हाकर सर्वार्थसिद्ध विहार से विरत होना चाहते हैं। उनकी इच्छा न होते हुए भी सारथि उन्हें विहारभूमि ले जाता है। यहां सुन्दरियों का समूह भी उन्हें आकृष्ट नही कर पाता है। जीवन की क्षणभंगुरता, यौवन की क्षणिकता तथा मृत्यु की अवश्यंभाविता का बोध हो जाने पर जो मनुष्य कामासक्त होता हैं, उसकी बुद्धि को लोहे से निर्मित मानकर सर्वार्थसिद्ध वहां से भी लौट आते हैं।
 
*अपनी अन्तिम विहार-यात्रा में सर्वार्थसिद्ध को एक संन्यासी दिखाई देता है। पूछने पर पता चलता है कि वह जन्म-मरण से भयभीत होकर संन्यासी बन गया है। संन्यासी के इस आदर्श से प्रभावित होकर सर्वार्थसिद्ध भी संन्यास लेने का संकल्प करते हैं। परन्तु राजा उन्हें संन्यास की अनुमति नहीं देते हैं। तथा सर्वार्थसिद्ध को गृहस्थाश्रम में ही आबद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। प्रमदाओं का विवृत और विकृत रूप देखकर सर्वार्थसिद्ध के मन में वितृष्णा और घृणा का भाव उत्पन्न होता है। वे मन ही मन सोचते हैं कि स्त्रियों की इतनी विकृत और अपवित्र प्रकृति होने पर वस्त्राभूषणों से वंचित होता हुआ पुरुष उनके अनुराग-पाश में आबद्ध होता है।
 
*विरक्त सर्वार्थसिद्ध सारथि छन्दक को साथ लेकर और कन्थक नामक अश्व की पीठ पर आरूढ़ होकर अर्घरात्रि में नगर से बाहर निकलते हैं तथा प्रतिज्ञा करते हैं-'जन्म और मृत्यु का पार देखे बिना [[कपिलवस्तु]] में प्रवेश नहीं करूंगा।' नगर में दूर पहुँचकर सर्वार्थसिद्ध अपने सारथि तथा अश्व को बन्धन-मुक्त कर तपोवन में ऋषियों के पास अपनी समस्या का समाधान ढूंढने के लिए जाते हैं, परन्तु उन तपस्वियों की स्वर्ग-प्रदायिनी प्रवृत्ति से उन्हें सन्तोष नहीं होता है। वे एक जटिल द्विज के निर्देशानुसार दिव्य ज्ञानी अराड् मुनि के पास मोक्ष-मार्ग की शिक्षा ग्रहण करने के लिए चले जाते हैं। इधर सारथि छन्दक और कन्थक नामक घोड़े को ख़ाली देखकर अन्त:पुर की स्त्रियां बैलों से बिछुड़ी हुई गायों की भांति विलाप करने लगती हैं। पुत्र-मोह से व्यग्र राजा के निर्देशानुसार मन्त्री और पुरोहित कुमार का अन्वेषण करने के लिए निकल पड़ते हैं। राजा [[बिम्बसार]] सर्वार्थसिद्ध को आधा राज्य देकर पुन: गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने का असफल प्रयास करते हैं। परन्तु आत्मवान को भोग-विलासों से सुख-शान्ति की प्राप्ति कैसे हो सकती है? अन्तत: राजा प्रार्थना करता है कि सफल होने पर आप मुझ पर अनुग्रह करें। निवृत्ति-मार्ग के अन्वेषक सर्वार्थसिद्ध को अराड् मुनि ने सांख्य-योग की शिक्षा दी, परन्तु उनके उपदेशों में भी सर्वार्थसिद्ध को शाश्वत मोक्ष-पथ परिलक्षित नहीं हुआ।
 
*अन्त में सर्वार्थसिद्ध गयाश्रम जाते हैं। यहां उन्हें सेवा लिए प्रस्तुत पांच भिक्षु मिलते हैं। गयाश्रम में गौतम तप करते हैं, किन्तु इससे भी उन्हें अभीष्ट-सिद्धि नहीं मिलती है। उन्हें यह अवबोध होता है कि इन्द्रियों को कष्ट देकर मोक्ष-प्राप्ति असम्भव है, क्योंकि सन्तप्त इन्द्रिय और मन वाले व्यक्ति की समाधि पूर्ण नहीं होती। समाधि की महिमा से प्रभावित सर्वार्थसिद्ध तप का परित्याग कर समाधि का मार्ग अंगीकार करते हैं।
 
*अश्वत्थ महावृक्ष के नीचे मोक्ष-प्राप्ति के लिए प्रतिश्रुत राजर्षिवंश में उत्पन्न महर्षि सर्वार्थसिद्ध को समाधिस्थ देखकर सारा संसार तो प्रसन्न हुआ, पर सद्धर्म का शत्रु मार भयभीत होता है। अपने विभ्रम, हर्ष एवम् दर्प नामक तीनों पुत्रों तथा अरति, प्रीति तथा तृषा नामक पुत्रियों सहित पुष्पधन्वा 'मार' संसार को मोहित करने वाले अपने पांचों बाणों को लेकर अश्वत्थ वृक्ष के मूल में स्थित प्रशान्तमूर्ति समाधिस्थ सर्वार्थसिद्ध को भौतिक प्रलोभनों से विचलित करने का असफल प्रयास करता है। यहीं सर्वार्थसिद्ध का मार के साथ युद्ध है। इस में मार की पराजय तथा सर्वार्थसिद्ध की विजय होती है। समाधिस्थ सर्वार्थसिद्ध धैर्य और शान्ति से मार की सेना पर विजय प्राप्त कर परम तत्त्व का परिज्ञान प्राप्त करने के लिए ध्यान लगाते हैं। ध्यान के माध्यम से उन्हें सफलता मिलती है। वे अष्टांग योग का आश्रय लेकर अविनाशी पद तथा सर्वज्ञत्व को प्राप्त करते हैं।
 
*इस प्रकार मूल संस्कृत में उपलब्ध बुद्धचरित के 14 सर्गों में भगवान बुद्ध का जन्म से लेकर बुद्धत्व-प्राप्ति तक विशुद्ध जीवन-वृतान्त वर्णित है। पन्द्रहवें सर्ग से लेकर अठारहवें सर्ग तक का शेष भाग तिब्बती भाषा में प्राप्त है। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृत अध्यापक डा0 जॉन्स्टन ने तिब्बती तथा चीनी भाषा से उसका अंग्रजी में भावानुवाद किया था, जिसका श्रीसूर्यनारायण चौधरी ने हिन्दी भाषा में अनुवाद किया। उसी का संस्कृत पद्यानुवाद जबलपुर महन्त श्रीरामचन्द्रदास शास्त्री ने किया है। यद्यपि महन्त श्री रामचन्द्रदास शास्त्री ने अनुवाद अश्वघोष के मूल के समकक्ष बनाने का यथासाघ्य प्रयास किया है, फिर भी मूल तो मूल ही होता है। अनुवाद कभी भी मूल का स्थान नहीं ले सकता।
 
*अश्वघोष प्रणीत मूल बुद्धचरित का चौदहवां सर्ग बुद्धत्व-प्राप्ति में समाप्त होता है। उसके बाद के सर्गों में क्रमश: बुद्ध का काशीगमन, शिष्यों को दीक्षादान, महाशिष्यों की प्रव्रज्या, अनाथपिण्डद की दीक्षा, पुत्र-पितासमागम, जैतवन की स्वीकृति, प्रव्रज्यास्रोत, आम्रपाली के उपवन में आयुनिर्णय, लिच्छवियों पर अनुकम्पा, निर्वाणमार्ग, महापरिनिर्वाण, निर्वाण की प्रशंसा तथा धातु का विभाजन विषय वर्णित है। बुद्धचरित के 15 से 28वें सर्ग तक इस अनूदित भाग में भगवान बुद्ध के सिद्धान्तों का विवेचन है। अधिकतर अनुष्टुप् छन्द में विरचित बुद्धचरित के इस द्वितीय भाग में शास्त्रीजी ने सर्ग के अन्त में संस्कृत-काव्य-सरणि के अनुरूप वसन्ततिलका आदि छन्दों का भी प्रयोग किया है।
 
*28 सर्गों में रचित बुद्धचरित के मूल 14 सर्गों तक के प्रथम भाग में 1115 तथा 15 से 28 सर्ग तक अनूदित द्वितीय भाग में 1033 श्लोक हैं। भगवान बुद्ध के विशुद्ध जीवनवृत्त पर आधारित इस महाकाव्य की कथावस्तु को वर्णनात्मक उपादानों से अलंकृत करने का महाकवि अश्वघोष ने सफल प्रयास किया है। इस महाकाव्य के सरल एवं प्रभावोत्पादक वर्णनों में अन्त:पुर-विहार, उपवन-विहार, वृद्ध-दर्शन, रोगी-दर्शन, मृतक-दर्शन, कामिनियों द्वारा मनोरंजन, वनभूमि-दर्शन, श्रमणोपदेश, सुन्दरियों का विकृत रूप-दर्शन, महाभिनिष्क्रमण, वन-यात्रा, छन्दक-कन्थक-विसर्जन, तपस्वियों से वार्तालाप, अन्त:पुर-विलाप तथा मारविजय उल्लेखनीय हैं।
 
*महाकवि अश्वघोष ने उपर्युक्त विषयों का काव्योचित शैली में वर्णन कर इस महाकाव्य के सौष्ठव का संवर्धन किया है तथा काव्य को सरस बनाने के लिए इन वर्णनों का समुचित संयोजन किया है। काव्य को [[दर्शन]] और धर्म के अनुकूल बना लेना अश्वघोष की मौलिक विशेषता है। बुद्धचरित में कवि का यह वैशिष्ट्य पद-पद पर परिलक्षित होता है। अश्वघोष ने इस महाकाव्य के माध्यम से बौद्ध-धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करने का सफल प्रयास किया है। विशुद्ध काव्य की दृष्टि से बुद्धचरित के प्रथम पांच सर्ग तथा अष्टम एवम् त्रयोदश सर्ग के कुछ अंश अत्यन्त रमणीय हैं। इसमें यमक, उपमा और उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की कवि ने अत्यन्त रमणीय योजना की है। इस महाकाव्य में स्वाभाविकता का साम्राज्य है। आध्यात्मिक जीवन तथा तथागत भगवान बुद्ध के विशुद्ध एवम् लोकसुन्दर चरित्र के प्रति कवि की अगाध श्रद्धा के कारण इस महाकाव्य में भावों का नैसर्गिक प्रवाह इस महाकाव्य को उदात्त भावभूमि पर प्रतिष्ठित करता है। मानवता को अभ्युदय और मुक्ति का सन्देश देने के अभिलाषी अश्वघोष के व्यक्तित्व की गरिमा के अनुरूप ही उनका यह काव्य भी भगवान बुद्ध के गौरवपूर्ण व्यक्तित्व से मण्डित है।
 
 
 
 
[[en:Ashvaghosh]]
 
[[en:Ashvaghosh]]
[[श्रेणी: कोश]]  
+
[[Category: कोश]]  
[[श्रेणी: बुद्ध]]  
+
[[Category: बुद्ध]]  
[[श्रेणी:विद्वान]]
+
[[Category:विद्वान]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

०५:५१, ८ जुलाई २०१० के समय का अवतरण

महाकवि अश्वघोष / Ashvaghosh

संस्कृत में बौद्ध महाकाव्यों की रचना का सूत्रपात सर्वप्रथम महाकवि अश्वघोष ने ही किया था। अत: महाकवि अश्वघोष संस्कृत के प्रथम बौद्धकवि हैं। चीनी अनुश्रुतियों तथा साहित्यिक परम्परा के अनुसार महाकवि अश्वघोष सम्राट कनिष्क के राजगुरु एवम् राजकवि थे। इतिहास में कम से कम दो कनिष्कों का उल्लेख मिलता है। द्वितीय कनिष्क प्रथम कनिष्क का पौत्र था। दो कनिष्कों के कारण अश्वघोष के समय असंदिग्ध रूप से निर्णीत नहीं था।

  • विण्टरनित्स के अनुसार कनिष्क 125 ई॰ में सिंहासन पर आसीन हुआ था। तदनुसार अश्वघोष का स्थितिकाल भी द्वितीय शती ई॰ माना जा सकता है। परन्तु अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि कनिष्क शक संवत का प्रवर्तक है। यह संवत्सर 78 ई॰ से प्रारम्भ हुआ था। इसी आधार पर कीथ अश्वघोष का समय 100 ई॰ के लगभग मानते हैं। कनिष्क का राज्यकाल 78 ई॰ से 125 ई॰ तक मान लेने पर महाकवि अश्वघोष का स्थितिकाल भी प्रथम शताब्दी माना जा सकता है।
  • बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में भी ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनके आधार पर अश्वघोष, सम्राट कनिष्क के समकालीन सिद्ध होते हैं। चीनी परम्परा के अनुसार सम्राट कनिष्क के द्वारा काश्मीर के कुण्डलव में आयोजित अनेक अन्त:साक्ष्य भी अश्वघोष को कनिष्क का समकालीन सिद्ध करते हैं।
  • अश्वघोष कृत 'बुद्धचरित' का चीनी अनुवाद ईसा की पांचवीं शताब्दी का उपलब्ध होता है। इससे विदित होता है कि भारत में पर्याप्त रूपेण प्रचारित होने के बाद ही इसका चीनी अनुवाद हुआ होगा।
  • सम्राट अशोक का राज्यकाल ई॰पू॰ 269 से 232 ई॰ पू॰ है, यह तथ्य पूर्णत: इतिहास-सिद्ध है। 'बुद्धचरित' के अन्त में अशोक का उल्लेख होने के कारण यह निश्चित होता है कि अश्वघोष अशोक के परवर्ती थे।
  • चीनी परम्परा अश्वघोष को कनिष्क का दीक्षा-गुरु मानने के पक्ष में है। अश्वघोष कृत 'अभिधर्मपिटक' की विभाषा नाम्नी एक व्याख्या भी प्राप्त होती है जो कनिष्क के ही समय में रची गयी थी।
  • अश्वघोष रचित 'शारिपुत्रप्रकरण' के आधार पर प्रो0 ल्यूडर्स ने इसका रचनाकाल हुविष्क का शासनकाल स्वीकार किया है। हुविष्क के राज्यकाल में अश्वघोष की विद्यमानता ऐतिहासिक दृष्टि से अप्रमाणिक है। इनका राज्यारोहणकाल कनिष्क की मृत्यु के बीस वर्ष के बाद है। हुविष्क के प्राप्त सिक्कों पर कहीं भी बुद्ध का नाम नहीं मिलता, किन्तु कनिष्क के सिक्कों पर बुद्ध का नाम अंकित है। कनिष्क बौद्धधर्मावलम्बी थे और हुविष्क ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। अत: अश्वघोष का उनके दरबार में विद्यमान होना सिद्ध नहीं होता।
  • कालिदास तथा अश्वघोष की रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है कि अश्वघोष कालिदास के परवर्ती थे। कालिदास की तिथि प्रथम शताब्दी ई॰ पू॰ स्वीकार करने से यह मानना पड़ता है कि दोनों रचनाओं में जो साम्य परिलक्षित होता है उससे कालिदास का ऋण अश्वघोष पर सिद्ध होता है। अश्वघोष के ऊपर कालिदास का प्रभूत प्रभाव पड़ा था, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि कालिदास ने कुमारसंभव और रघुवंश में जिन श्लोंकों को लिखा, उन्हीं का अनुकरण अश्वघोष ने बुद्धचरित में किया है। कालिदास ने विवाह के बाद प्रत्यागत शिव-पार्वती को देखने के लिए उत्सुक कैलास की ललनाओं का तथा स्वयम्वर के अनन्तर अज और इन्दुमती को देखने के लिए उत्सुक विदर्भ की रमणियों का क्रमश: कुमारसंभव तथा रघुवंश में जिन श्लोकों द्वारा वर्णन किया है, उन्हीं के भावों के माध्यम से अश्वघोष ने भी राजकुमार सिद्धार्थ को देखने के लिए उत्सुक कपिलवस्तु की सुन्दरियों का वर्णन किया है। बुद्धचरित का निम्नश्लोक-
  • वातायनेभ्यस्तु विनि:सृतानि परस्परायासितकुण्डलानि।

स्त्रीणां विरेजुर्मुखपङकजानि सक्तानि हर्म्येष्विव पङकजानि॥<balloon title="(बुद्धचरित 3।19)" style=color:blue>*</balloon> कुमारसंभव तथा रघुवंश के निम्नश्लोक-

  • तासां मुखैरासवगन्धगर्भैर्व्याप्तान्तरा सान्द्रकुतूहलानाम्।

विलोलनेत्रभ्रमरैर्गवाक्षा: सहस्रपत्राभरणा इवासन्।<balloon title="कुमारसंभव 7।62, रघुवंश7।11" style=color:blue>*</balloon> की प्रतिच्छाया है। उपर्युक्त श्लोकद्वय के तुलनात्मक अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि अश्वघोष कालिदास के ऋणी थे, क्योंकि जो मूल कवि होता है वह अपने सुन्दर भाव को अनेकत्र व्यक्त करता है। उस भाव का प्रचार-प्रसार चाहता है इसीलिए कालिदास ने कुमारसंभव और रधुवंश में अपने भाव को दुहराया है। परन्तु अश्वघोष ने कालिदास का अनुकरण किया है। अत: उन्होंने एक ही बार इस भाव को लिया है। फलत: अश्वघोष कालिदास से परवर्ती हैं।

व्यक्तित्व तथा कर्तृव्य

संस्कृत के प्रथम बौद्ध महाकवि अश्वघोष के जीवनवृत्त से सम्बन्धित अत्यल्प विवरण ही प्राप्त है। 'सौन्दरनन्द' नामक महाकाव्य की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था तथा ये साकेत के निवासी थे। ये महाकवि के अतिरिक्त 'भदन्त', 'आचार्य' तथा 'महावादी' आदि उपाधियों से विभूषित थे।<balloon title="आर्य सुवर्णाक्षीपुत्रस्य साकेतकस्य भिक्षोराचार्य भदन्ताश्वघोषस्य महाकवेर्महावादिन: कृतिरियम्। (अश्वघोष- सौन्दरनन्द की पुष्पिका" style=color:blue>*</balloon> उनके काव्यों की अन्तरंग परीक्षा से ज्ञात होता है कि वे जाति से ब्राह्मण थे तथा वैदिक साहित्य, महाभारत-रामायण के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनका 'साकेतक' होना इस तथ्य का परिचायक है कि उन पर रामायण का व्यापक प्रभाव था।

  • सम्राट कनिष्क के राजकवि अश्वघोष बौद्ध धर्म के कट्टर अनुयायी थे। इनकी रचनाओं पर बौद्ध धर्म एवम् गौतम बुद्ध के उपदेशों का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। अश्वघोष ने धर्म का प्रसार करने के उद्देश्य से ही कविता लिखी थी। अपनी कविता के विषय में अश्वघोष की सुस्पष्ट उद्घोषणा है कि मुक्ति की चर्चा करनेवाली यह कविता शान्ति के लिए है, विलास के लिए नहीं।<balloon title="'इत्येषा व्युपशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भाकृति:'सौन्दरनन्द 18।63" style=color:blue>*</balloon> काव्य-रूप में यह इसलिए लिखी गई है ताकि अन्यमनस्क श्रोता को अपनी ओर आकृष्ट कर सके।
  • अश्वघोष बौद्ध-दर्शन-साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित थे। इनकी गणना उन कलाकारों की श्रेणी में की जाती है जो कला की यवनिका के पीछे छिपकर अपनी मान्यताओं को प्रकाशित करते हैं। इन्होंने कविता के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर जनसाधारण के लिए सरलता तथा सरलतापूर्वक सुलभ एवम् आकर्षक बनाने का सफल प्रयास किया है। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्धधर्म के सिद्धान्त प्रतिबिम्बित हुए हैं। भगवान बुद्ध के प्रति अपरिमित आस्था तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता महाकवि अश्वघोष के व्यक्तित्व की अन्यतम विशेषता है। अश्वघोष कवि होने के साथ ही संगीत मर्मज्ञ भी थे। उन्होंने अपने विचारों को प्रभावशाली बनाने के लिए काव्य के अतिरिक्त गीतात्मकता को प्रमुख साधन बनाया।<balloon title="Keith- History of Sanskrit Literature, Page 56" style=color:blue>*</balloon>
  • बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान महाकवि अश्वघोष में शास्त्र और काव्य-सर्जन की समान प्रतिभा थी। उनके व्यक्तित्व में कवित्व तथा आचार्यत्व का मणिकांचन संयोग था। उन्होंने सज्रसूची, महायानश्रद्धोत्पादशास्त्र तथा सूत्रालंकार अथवा कल्पनामण्डितिका नामक धर्म और दर्शन विषयों के अतिरिक्त शारिपुत्रप्रकरण नामक एक रूपक तथा बुद्धचरित तथा सौन्दरनन्द नामक दो महाकाव्यों की भी रचना की। इन रचनाओं में बुद्धचरित महाकवि अश्वघोष का कीर्तिस्तम्भ है। इसमें कवि ने तथागत के सात्त्विक जीवन का सरल और सरस वर्णन किया है। 'सौन्दरनन्द' अश्वघोषप्रणीत द्वितीय महाकाव्य है। इसमें भगवान बुद्ध के अनुज नन्द का चरित वर्णित है। इन रचनाओं के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर उन्हें जनसाधारण के लिए सुलभ कराना ही महाकवि अश्वघोष का मुख्य उद्देश्य था। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्ध धर्म के सिद्धान्त सुस्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हैं। अश्वघोष प्रणीत महाकाव्यों में बुद्धचरित अपूर्ण तथा सौन्दरनन्द पूर्ण रूप में मूल संस्कृत में उपलब्ध है।

सम्बंधित लिंक