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अब ध्यान योग का अंगों सहित विस्तृत वर्णन करने के लिये छठे अध्याय का आरम्भ करते हैं और सबसे पहले <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था।¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को भक्ति कर्मयोग में प्रवृत करने के उद्देश्य से कर्मयोग की प्रशंसा करते हुए ही प्रकरण का आरम्भ करते हैं-  
'कर्मयोग' और 'सांख्ययोग'- इन दोनों ही साधनों में उपयोगी होने के कारण इस छठे अध्याय में ध्यान योग का भलीभाँति वर्णन किया गया है । ध्यान योग में शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि का संयम करना परम आवश्यक है । तथा शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि- इन सबको 'आत्मा' के नाम से कहा जाता है और इस अध्याय में इन्हीं के संयम का विशेष वर्णन है, इसलिये इस अध्याय का नाम 'आत्म संयम योग' रखा गया है ।
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'कर्मयोग' और 'सांख्ययोग'- इन दोनों को ही साधनों में उपयोगी होने के कारण इस छठे अध्याय में ध्यान योग का भली-भाँति वर्णन किया गया है । ध्यान योग में शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि का संयम करना परम आवश्यक है । तथा शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि- इन सबको 'आत्मा' के नाम से कहा जाता है और इस अध्याय में इन्हीं के संयम का विशेष वर्णन है, इसलिये इस अध्याय का नाम 'आत्म संयम योग' रखा गया है ।
  
 
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पहले श्लोक में भगवान् ने कर्म फल का आश्रय न लेकर कर्म करने वाले को संन्यासी और योगी बतलाया । उस पर यह शंका हो सकती है कि यदि 'संन्यास' और 'योग' दोनों भित्र-भित्र स्थिति हैं तो उपर्युक्त साधक दोनों से सम्पत्र कैसे हो सकता हैं ? अत: इस शंका का निराकरण करने के लिये दूसरे श्लोक में 'संन्यास' और 'योग' की एकता का प्रतिपादन करते हैं-
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पहले श्लोक में भगवान् ने कर्म फल का आश्रय न लेकर कर्म करने वाले को संन्यासी और योगी बतलाया । उस पर यह शंका हो सकती है कि यदि 'संन्यास' और 'योग' दोनों भिन्न-भिन्न स्थिति हैं तो उपर्युक्त साधक दोनों से संपन्न कैसे हो सकता हैं ? अत: इस शंका का निराकरण करने के लिये दूसरे श्लोक में 'संन्यास' और 'योग' की एकता का प्रतिपादन करते हैं-
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जो पुरूष कर्म फल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है; और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है ।।1।।
 
 
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जो पुरूष कर्म फल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है; और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है ।।1।।
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जो पुरुष कर्म फल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है; और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है ।।1।।
  
 
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'''Sri Bhagavan said:'''
 
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he who does his duty without expecting the fruit of actions is a samnyasi (sankhyayogi)  and a yogi (karmayogi) both.He is no samnyasi (renouncer) who has merely renounced the sacred fire; even so he is no Yogi, who has merely given up all activity. (1)
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One who is unattached to the results of his work and who works as he is obligated is in the renounced order of life, and he is the true mystic: not he who lights no fire and performs no work. (1)
 
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य: = जो पुरूष; कर्मफलम् = कर्म के फल को; अनाश्रित: = न चाहता हुआ; कार्यम् = करने योग्य; करोति = करता है; स: = वह; च = और(केवल); निरग्नि: = अग्नि को त्यागवाला; (संन्यासी योगी); न = नहीं हैं; अक्रिय: = क्रियाओं को त्यागने वाला; (भी संन्यासी योगी);  
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य: = जो पुरुष; कर्मफलम् = कर्म के फल को; अनाश्रित: = न चाहता हुआ; कार्यम् = करने योग्य; करोति = करता है; स: = वह; च = और(केवल); निरग्नि: = अग्नि को त्यागवाला; (संन्यासी योगी); न = नहीं हैं; अक्रिय: = क्रियाओं को त्यागने वाला; (भी संन्यासी योगी);  
 
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१२:४१, २१ मार्च २०१० के समय का अवतरण

गीता अध्याय-6 श्लोक-1 / Gita Chapter-6 Verse-1

षष्ठोऽध्याय: प्रसंग-


अब ध्यान योग का अंगों सहित विस्तृत वर्णन करने के लिये छठे अध्याय का आरम्भ करते हैं और सबसे पहले <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था।¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को भक्ति कर्मयोग में प्रवृत करने के उद्देश्य से कर्मयोग की प्रशंसा करते हुए ही प्रकरण का आरम्भ करते हैं- 'कर्मयोग' और 'सांख्ययोग'- इन दोनों को ही साधनों में उपयोगी होने के कारण इस छठे अध्याय में ध्यान योग का भली-भाँति वर्णन किया गया है । ध्यान योग में शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि का संयम करना परम आवश्यक है । तथा शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि- इन सबको 'आत्मा' के नाम से कहा जाता है और इस अध्याय में इन्हीं के संयम का विशेष वर्णन है, इसलिये इस अध्याय का नाम 'आत्म संयम योग' रखा गया है ।

प्रसंग-


पहले श्लोक में भगवान् ने कर्म फल का आश्रय न लेकर कर्म करने वाले को संन्यासी और योगी बतलाया । उस पर यह शंका हो सकती है कि यदि 'संन्यास' और 'योग' दोनों भिन्न-भिन्न स्थिति हैं तो उपर्युक्त साधक दोनों से संपन्न कैसे हो सकता हैं ? अत: इस शंका का निराकरण करने के लिये दूसरे श्लोक में 'संन्यास' और 'योग' की एकता का प्रतिपादन करते हैं-


अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य: ।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय: ।।1।।



श्रीभगवान् बोले-


जो पुरुष कर्म फल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है; और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है ।।1।।

Sri Bhagavan said:


One who is unattached to the results of his work and who works as he is obligated is in the renounced order of life, and he is the true mystic: not he who lights no fire and performs no work. (1)


य: = जो पुरुष; कर्मफलम् = कर्म के फल को; अनाश्रित: = न चाहता हुआ; कार्यम् = करने योग्य; करोति = करता है; स: = वह; च = और(केवल); निरग्नि: = अग्नि को त्यागवाला; (संन्यासी योगी); न = नहीं हैं; अक्रिय: = क्रियाओं को त्यागने वाला; (भी संन्यासी योगी);



अध्याय छ: श्लोक संख्या
Verses- Chapter-6

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47

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