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०७:४२, २४ अक्टूबर २००९ का अवतरण


गीता अध्याय-11 श्लोक-18 / Gita Chapter-11 Verse-18


त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्ता
सनातनस्त्वं पुरूषो मतो मे ।।18।।



आप ही जानने योग्य परम अक्षर अर्थात् पर ब्रह्मा परमात्मा हैं, आप ही इस जगत् के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरूष हैं । ऐसा मेरा मत है ।।18।।

You are the supreme indestuctible worthy of being known; you are the ultimate refuge of this universe. You are, again, the protector of the ageless Dharma; I consider you to be the eternal imperishable being. (18)


त्वम् = आप(ही); वेदितव्यम् = जानने योग्य; परमम् = परम; अक्षरम् = अक्षर हैं अर्थात् परब्रह्रा परमात्मा हैं(और); त्वम् = आप(ही); अस्य = इस; विश्वस्य = जगत् के; निधानाम् = आश्रय हैं(तथा); त्वम् = आप(ही); शाश्वतधर्मगोप्ता = अनादि धर्म के रक्षक हैं(और); अव्यय: = अविनाशी; सनातन: = सनातन; मत: = मत है



अध्याय ग्यारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-11

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10, 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26, 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41, 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55

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