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गीता अध्याय-11 श्लोक-31 / Gita Chapter-11 Verse-31
प्रसंग-
<balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था।
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अर्जुन</balloon> ने तीसरे और चौथे श्लोकों में भगवान् से अपने ऐश्वर्यमय रूप का दर्शन कराने के लिये प्रार्थना की थी, उसी के अनुसार भगवान् ने अपना विश्व रूप अर्जुन को दिखलाया; उनके मन में इस बात के जानने की इच्छा उत्पन्न हो गयी कि ये <balloon link="index.php?title=कृष्ण" title="गीता कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश है। कृष्ण भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">श्रीकृष्ण</balloon> वस्तुत: कौन हैं ? तथा इस महान उग्र स्वरूप के द्वारा अब ये क्या करना चाहते हैं ? इसीलिये वे भगवान् से पूछ रहे हैं-
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो
नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं
न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ।।31।।
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मुझे बतलाइये कि आप उग्र रूप वाले कौन हैं ? हे देवों में श्रेष्ठ ! आपको नमस्कार हो । आप प्रसन्न होइये । आदि पुरुष आपको मैं विशेष रूप से जानना चाहता हूँ, क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता ।।31।।
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Tell me who you are with a form so terrible. My obeisance to you, O best of gods, be king to me, I wish to know you, the primal being, in particular for I know not your purpose. (31)
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आख्याहि = कहिये(कि); भवान् = आप; उग्ररूप्: = उग्ररूपवाले; क: = कौन हैं; देववर = हे देवों में श्रेष्ठ; ते = आपको; नम: = नमस्कार; अस्तु = होवे(आप); प्रसीद = प्रसत्र होइये; आद्यम् = आदिस्वरूप; भवन्तम् = आपको(मैं); विज्ञातुम् = तत्त्वसे जानना; इच्छामि = चाहता हूं; हि = क्योंकि; तव = आपकी; प्रवृत्तिम् = प्रवृत्तिको(मैं); प्रजानामि = जानता
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